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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना
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श्रीकृष्ण के साथ गेंद खेलना, कुश्ती लड़ना एक दूसरे पर सवारी चढ़ना, उनके साथ पलङ ग पर बैठना, झूले पर झूलना, साथ सोना, उनके साथ विनोद करना, जलबिहार, नाचना, गाना, बजाना, गाय दुहना-चराना, कलेऊ करना, आंख मिचौनी आदि खेलना इत्यादि प्रेयोभक्तिरस के अनुभाव
श्रीकृष्ण के प्रेम में पगे रहना, उनकी अद्भुत लीला देखकर स्तम्भित हो जाना, शरीर पसीजना, रोमांचित होना, विवर्ण होना आदि सात्त्विक भाव स्पष्टरूप से प्रकट होते हैं। आनन्द के आंसू, हर्ष की गाढ़ता आदि स्वाभाविक रूप से रहते हैं। सख्य रति में अपने सखा पर पूर्ण विश्वास रहता है । यही सख्य रति विकसित होकर क्रमश: प्रणय, प्रेम, स्नेह और राग का रूप धारण करती है । सख्य रति में मिलन की इच्छा अत्यन्त तीव्र होती है । प्रणय में ऐश्वर्य का प्रकाश होने पर भी सखा पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। एक ओर ब्रह्मा एवं शिव जैसे महान् देवता श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे हैं तो दूसरी ओर एक सखा उनकी वालों पर पड़ी हुई धूलि झाड़ रहा है । प्रेम में दुःख भी उसको बढ़ाने वाला होता है । स्नेह में एक क्षण के लिए भी अपने सखा की विस्मृति नहीं होती। हृदय सर्वदा स्नेह से भरा रहता है । राग में दुःख के निमित्त भी सुख के रूप में अनुभूव होते हैं।
दास्य रसवत् प्रेमोभक्ति रस में भी अयोग की दोनों अवस्थाएं होती हैं। (१) जब तक भगवान की प्राप्ति नहीं होती तब तक उत्कण्ठित अवस्था, और (२) मिलने के पश्चात् जब वियोग होता है तब विहावस्था। मिलने के पश्चात् वियोग का वर्णन पाण्डवों के जीवन में स्पष्ट रूप से मिलता है। भागवत के प्रथम स्कन्ध में अर्जुन ने भगवान् से बिछुड़ने पर जो विलाप किया है वह बड़ा ही हृदयद्रावक एवं मर्मस्पर्शी है।
__ भगवान् सखाओं के जीवन में प्राप्त विविध संकटों से रक्षा करते हैं। कुन्तीकृत भगवत्स्तुति में-कुन्ती अपने सुहृद् सखा श्रीकृष्ण के भूयोपकारों का स्मरण कर रही हैं---
विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शनादसत्सभाया वनवासकृच्छतः।
मृधे मृधेऽनेकमहारथास्रतो द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरेभिरक्षिताः॥
उद्धव, गोपियां, श्रीदामा आदि, श्रीकृष्ण के अन्तरंग सखा हैं । गोपीजन एक क्षण भी श्रीकृष्ण से विरहित होकर अपना अस्तित्व धारण नहीं कर सकती । गोपियां श्रीकृष्ण से निवेदिन कर रही है--प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम सब धर्मों का रहस्य जानते हो। तुम्हारा यह कहना कि अपने पति, पुत्र और भाई-बन्धुओं की सेवा करना ही स्त्रियों का स्वधर्म है-यह १. श्रीमद्भागवत १.८.२४
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