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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन् प्रपन्नभयभजन ।
वयं त्वां शरणं यामो भवभीताः पृथग्धियः ॥
वाङ मनसगोचर सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण ! आप शरणागतों के भयभंजक हैं । भेदबुद्धि से युक्त जन्ममृत्युरूप संसारचक्र से भयभीत होकर हम आपकी शरण में आये हैं । ३. वात्सल्य भाव
श्रीमद्भागवत की कतिपय स्तुतियों में वात्सल्यभाव की प्रधानता है। अपने उपास्य या भगवान् को पुत्र के रूप स्वीकृत कर कतिपय भक्त भक्ति करते हैं । "कर्दम-देवहूति'' कश्यप-अदिति, नन्द-यशोदा और वसुदेवदेवकी आदि वात्सल्य भक्तों में अग्रणी हैं। ये लोग प्रभु को पुत्र के रूप में स्वीकार कर उनकी विभिन्न प्रकार से सेवा, सुश्रूषा आदि कर अपने को धन्य कर लेते हैं।
भगवान् स्वयं ऐसे भाग्यशाली लोगों के यहां प्रादुर्भूत होकर जगत् का कल्याण करते हैं। संसारार्णव से जीवों के कल्याण के लिए भगवान् कपिल माता देवहूति के गर्भ से प्रकट होते हैं । साक्षात्परमब्रह्मपरमेश्वर को अपने पुत्र के रूप में अवतरित देखकर प्रजापति कर्दम इस प्रकार स्तुति करने लगते हैं ---
अहो पापच्यमानानां निरये स्वैरमङ्गलैः। कालेन भूयसा नूनं प्रसीदन्तीह देवताः ॥ बहुजन्मविपक्वेन सम्यग्योग समाधिना।
द्रष्टुं यतन्ते यतयः शून्यागारेषु यत्पदम् ॥ अहो ! अपने पापकर्मों के कारण इस दु:खमय संसार में नाना प्रकार से पीड़ित होते हुए पुरुषों पर देवगण तो बहुत-काल बीतने पर प्रसन्न होते हैं। किन्तु जिनके स्वरूप को योगिजन अनेकों जन्मों के साधन से सिद्ध हुई सुदढ़ समाधि के द्वारा एकान्त में देखने का प्रयत्न करते हैं, अपने भक्तों की रक्षा करने वाले वे ही श्रीहरि हम विषय लोलुपो के द्वारा होने वाली अवज्ञा का कुछ भी विचार न कर आज हमारे घर अवतीर्ण हुए हैं। “यहां वात्सल्यभाव से भक्ति प्रारम्भ होती है। इसमें केवल कोरा सांसारिक सम्बन्ध ही नहीं स्थापित किया गया बल्कि प्रभु के माहात्म्य ज्ञान भी भक्त कर्दम द्वारा पोषित किया गया है । लौकिकजनों और भगवान् के सम्बन्ध में यही अन्तर होता है । भले ही भक्त भगवान् को "घुटरनु चलत रेणु तनु
१. श्रीमद्भागवत १०.७०.२५ २. तत्रैव ३.२४.२७-२८
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