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शब्दों द्वारा प्रियतम को उलाहना देने लगती हैं-
श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलङ घ्य तेऽन्त्यच्युतागतः । गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥
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अरे धूर्त ! कपटी ! अपने पति भाई आदि की आज्ञा का उल्लंघन कर तेरे पास हमलोग आई हैं । हम तुम्हारी एक-एक चाल जानती हैं, संकेत समझती हैं । तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर ही हम तेरे पास आई हैं । इस प्रकार रात्रि के समय आयी हुई युवतियों को तेरे सिवाय और कौन छोड़ सकता है ।
रस विश्लेषण
वासना रूप में विद्यमान रति आदि स्थायी भाव विभावादि के द्वारा उबुद्ध एवं उदीप्त होकर, अनुभावादि की सहायता से कार्य रूप में परिणत तथा संचारिकों के द्वारा रस के रूप में अभिव्यक्त हो जाता है उसे ही रस कहते हैं । यह पानक रस की तरह सुस्वादु ब्रह्मस्वादसहोदर, अलौकिक और चमत्कारकारक होता है ।
भरतमुनि रस सम्प्रदाय के आद्याचार्य माने जाते हैं । उनके अनुसार विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है ।" काव्यप्रकाश के अनुसार आलम्बनविभाव से उबुद्ध उद्दीपन से उद्दीप्त व्यभिचारिभावों से परिपुष्ट तथा अनुभावों द्वारा व्यक्त हृदयस्थ स्थायीभाव ही रस को प्राप्त होता है। काव्य के पुनः - पुन: अनुसन्धान से तथा विभावादि के संयोग से उत्पन्न आनन्दात्मक चित्तवृत्ति ही रस संज्ञाभिधेय है । चमत्कार ही रस का प्राण है और चमत्कार चित्त का विस्तार, विस्फार या अलौकिक आनन्द की उपलब्धि रूप है तथा विस्मय का अपर पर्याय है ।" आचार्य भरत ने रस की तुलना पानक रस से की है । जिस प्रकार मिश्री, मिर्च, इलाईची आदि के आनुपातिक मिश्रण से निष्पन्न पानक रस के पान से एक विलक्षण प्रकार की स्वादानुभूति होती है, जो न तो केवल मिश्री का स्वाद रहता है न तो केवल इलाईची, अपितु सबका मिलाजुला तथा सबसे विलक्षण स्वाद से युक्त होता है । उसी प्रकार काव्यरस विभावादि के द्वारा निष्पन्न एक प्रकार की अलौकिक विलक्षण एवं अनिवर्चनीय अनुभूति है जो
१. श्रीमद्भागवत १०.३१.१६
२. विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पत्तिः नाट्यशास्त्र ६.३१ बाद में
३. काव्यप्रकाश, ४.२५ के बाद
४. चमत्कारश्चित्तविस्ताररूप विस्मयापरपर्यायः - सा० द० ३.३ के
अनन्तर
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