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श्रीमद्भागवत की स्तुयियों का समीक्षात्मक अध्ययन
बलवानों में बलीष्ठ हैं। हनुमानजी जन्म-जन्मान्तर के लिए प्रभु चरण- सेवा काही वरदान मांगते हैं। राजा पृथु को एक क्षण भी भगवान् की चरण सेवा छोड़कर किसी भी कार्य में मन नहीं रमता है ।"
भक्तिमति गोपियां मोरमकराकृत कुण्डल से सुशोभित पुरुषभूषण से उनके चरणों में दासी बनने की याचना करती हैतन्न प्रसीद वृजिनार्दन तेऽङि प्रमूलं
प्राप्ताविसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशाः ।
त्वत्सुन्दर स्मितनिरीक्षणतीव्रकाम
तप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम् ॥'
हे नाथ हम तुम्हारे शरणागत हैं । हम पर कृपाकर अपने प्रसाद का भाजन बनाओ हमें दासी रूप में स्वीकार कर दो
अपने सेवा का अवसर
५. प्रपत्तिभाव
प्रपत्ति का अर्थ है शरणागति । संसार के सभी वस्तुओं को हीन समझकर एकमात्र अनन्य भाव से प्रभु की प्रार्थना करना ही प्रपत्ति है । त्रिविधानल से दग्ध प्राणी जब अपने आपको असहाय, असमर्थ समझने लगता है, तब अपनी स्थिरा एवं दृढात्मिका बुद्धि के द्वारा अनन्यभाव से भगवान् के शरण में उपस्थित होता है । इस अवस्था में अनन्य साध्य भगवत्प्राप्ति में महाविश्वासपूर्वक भगवान् को ही एक मात्र उपाय समझकर प्रार्थना करते रहना ही प्रपत्ति है
अनन्य साध्यं स्वामीष्टे महाविश्वासपूर्वकम् । तदेोपायतायां च प्रपत्तिः शरणागतिः ॥
इसमें उपायान्तरों का अभाव रहता है, भगवान् को ही सर्वोत्तम उपाय और उपेय समझकर भक्त सारी चिन्ता से रहित होकर उसी की शरण में चला जाता है । उस अवस्था में भक्त अपना सब कुछ उसी के प्रति समर्पित कर चिन्तामुक्त होकर केवल उन्हीं का हो जाता है । भक्तिमति गोपियां सांसारिक सम्बन्धों को छोड़कर प्रभु श्रीकृष्ण की शरणागति ग्रहण करती है
मैवं विभोऽर्हति भवान गदितुं नृशंसं
संत्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् ॥'
१. श्रीमद्भागवत ४.२०.२४
२. तत्रैव १०.२९.३८
३. पंचरात्र विष्कसेन संहिता -साधनांक, कल्याण, पृ० ६०
४. श्रीमद्भागवत १०.२९.३१
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