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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना
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दीनता के भाव का प्रदर्शन करता है । यह दीनता सांसारिक दीनता से उच्चकोटि की होती है। वह भगवान् के दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए अनुनय-विनय करता है । भक्त के समक्ष संसार के सम्पूर्ण देवी-देवता स्वार्थ युक्त एवं साधनहीन दिखलाई पड़ते हैं, एकमात्र उसका उपास्य ही ऐसा है जो सर्वगुणसम्पन्न एवं सर्वसमर्थ है। इसलिए उसके सामने दैन्य भाव से अपना सब कुछ प्रकट करता हुआ उसी की शाश्वत शीतल चरण छाया को प्राप्त कर लेता है।
भक्तिमति गोपियों में यद्यपि शरणागति के भाव की ही प्रधानता है, लेकिन प्रपत्ति के पहले दैन्य भाव का उद्भावन हो ही जाता है । गोपियां दीनभाव से प्रभु श्रीकृष्ण से अनुरोध करती है, अनुनय-विनय करती है किहम कहां जाएं हे प्रभो हमें स्वीकार कर लो - कुर्वन्ति हि त्वयि रति कुशलाः स्व आत्मन्
नित्यप्रियपतिसुतादिभिरातिदैः किम् । तन्नः प्रसीद परमेश्वर मा स्म छिन्द्या
आशां भृतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र ॥' हे नाथ ! स्वामिन् ! आत्मज्ञान में निपुण महापुरुष तुमसे ही प्रेम करते हैं, क्योंकि तुम नित्य प्रिय और अपने ही आत्मा हो । अनित्य एवं दुःखद पति-पुत्रादि से क्या प्रयोजन है। परमेश्वर ! इसलिए हम पर प्रसन्न होवो । कृपा करो। कमलनयन ! चिरकाल से तुम्हारे प्रति पाली-पोसी आशा-अभिलाषा की लहलहाती लता का छेदन मत करो।
कितना दीन-भाव है गोपियों में "हे नाथ ! आशा-लतिका का छेदन मत करो" इसी वाक्य में भक्ति का सम्पूर्ण बीज दृष्टिगोचर होता है ।
. अपने आततायी स्वामी का विनाश अपने समक्ष देखकर दैन्य भाव से नागपत्नियां अपने पति के जीवन की याचना करती है - शान्तात्मन् ! स्वामी को एक बार प्रजा का अपराध सह लेना चाहिए। यह मूढ है, आपको पहचानता नहीं इसलिए इसको आप क्षमा कर दीजिए। भगवान् कृपा कीजिए, अब यह सर्प मरने ही वाला है। साधुपुरुष सदा से हम अबलाओं पर दया करते आये हैं । अतः हमारे प्राणस्वरूप हमारे पतिदेव को दे दीजिए।
जरासंध कारागार में निबद्ध दस सहस्र नृपतियों ने दीनतापूर्वक भगवान् श्रीकृष्ण से अपनी रक्षा की याचना की
१. श्रीमद्भागवत १०.२९.३३ २. तत्रैव १०.१६.५१-५२
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