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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
आदि की स्फुरण रूप से सत्ता, पर्वतों की स्थिरता, प्रथिवी की साधारण शक्ति रूप वृत्ति और गंध रूप गुण आदि को आपही धारण करते हैं।' सृष्टि के प्रारम्भ में अपनी माया से ही गुणों की सृष्टि की और उन गुणों को स्वीकार करके जगत् की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय करते रहते हैं। इस प्रकार स्तुतियों में अनेक स्थलों पर ब्रह्म को सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता कहा गया है। सम्पूर्ण संसार के एक-एक पदार्थ में
__ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में ब्रह्म की सर्वव्यापकता का प्रतिपादन किया गया है। वह सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान है । वह सबका नियामक है।
___आप समस्त शरीरधारियों के हृदय में साक्षी एवं अंतर्यामी के रूप में विद्यमान हैं। जैसे एक ही अग्नि सभी लड़कियों में विद्यमान रहती है वैसे आप समस्त प्राणियों के आत्मा हैं। आप घट-घट में अपने अचिन्त्य शक्ति से विद्यमान रहते हैं एवं आपकी कीत्ति समस्त दिशाओं में व्याप्त है। आप स्वयं आदि अन्त से रहित सभी प्राणियों में स्थित रहते हैं। जैसे एक ही सूर्य अनेक आंखों से अनेक रूपों में दीखते हैं वैसे ही आप अपने ही द्वारा रचित अनेक शरीरधारियों के हृदय में रहते हैं । वास्तव में आप एक हैं और सबके हृदय में विद्यमान हैं। जल में जो जीवन देने, तृप्त करने तथा शुद्ध करने की शक्ति है वह आपही हैं । अन्तःकरण की शक्ति, इन्द्रिय शक्ति, शरीरशक्ति, वायु की शक्ति आदि सब आप ही के हैं।
तात्पर्यतः यह प्रतीत होता है कि ब्रह्म संसार के कण-कण में व्याप्त
कैवल्य रूप
परमेश्वर (कृष्ण) कैवल्यस्वरूप हैं। परमेश्वर और कैवल्य एक तत्त्व के नामांतर मात्र है । अद्वय ज्ञान तत्त्व ही जिसे महानुभूति' सत् चित १. श्रीमद्भागवत १०.८५.७ २. तत्रव १०.३७.१३, १०.६९.४५ ३. तत्रैव १०.३१.४ ४. तत्रैव १०.३७.१२ ५. तत्रैव १०.७०.३७, ४४ ६. तत्रैव ११.१६.१ ७. तत्रैव १.९.४२ ८. तत्रैव १०.८५.७, ८ ९. तत्रैव ११.२८.३५
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