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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन तरह की लकड़ियों में प्रकट हुई अग्नि अपनी उपाधियों के रूप में भिन्न-भिन्न रूप में भासती है, वस्तुतः वह एक ही है।' सभी उपासनाओं के मूल
साधु-योगी अपने अन्तःकरण में स्थित अन्तर्यामी के रूप में, समस्त भूत-भौतिक पदार्थों में व्याप्त परमात्मा के रूप में और सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि देवमण्डलों में स्थित इष्टदेवता के रूप में तथा उनके साक्षी, महापुरुष एवं नियन्ता के रूप में परब्रह्म परमेश्वर की ही उपासना करते हैं। भक्त भिन्न-भिन्न देवता के रूप में आप ही की उपासना करते हैं क्योंकि आप ही समस्त देवताओं के रूप में हैं और सर्वेश्वर भी हैं। जैसे चारों दिशाओं से प्रवाहित होकर नदियां समुद्र में प्रवेश करती है वैसे ही सभी प्रकार की उपासनाएं आप ही को समर्पित होती हैं। समस्त कारणों के परम कारण
आप ही जगत् के आदि कारण हैं । यह सृष्टि आपसे ही उत्पन्न होती है । आप ही अपनी शक्ति से इसकी रचना करते हैं और अपनी काल, माया आदि शक्तियों से इसमें प्रविष्ट होकर जितनी भी वस्तुएं देखी और सुनी जाती है उनके रूप में प्रतीत हो रहे हैं। जैसे पृथिवी आदि कारण तत्त्वों से ही उनके कार्य स्थावर जंगम शरीर बनते है, वे उन में अनुप्रविष्ट से होकर अनेक रूपों में प्रतीत होते हैं, परन्तु वे वास्तव में कारण रूप ही हैं। इसी प्रकार केवल आप ही हैं लेकिन अपने कार्य रूप जगत् में विभिन्न रूपों में उद्भासित होते हैं। आप रजोगुणी, सत्त्व गुणी एवं तमोगुणी शक्तियों से सष्टि की रचना, पालन और संहार करते हैं।
आप प्रकृति आदि समस्त कारणों के परम कारण हैं, सारा संसार पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व, प्रकृति-पुरुष, मन, इन्द्रिय, सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषय ये सबके सब आप से ही उत्पन्न होते हैं। आप समस्त इन्द्रियों और उनके विषयों के द्रष्टा हैं, समस्त प्रतीतियों के आधार हैं, समस्त वस्तुओं के सत्ता रूप में केवल आप हैं । आप सबके
१. श्रीमद्भागवत ४.९.७ २. तत्रैव १०.४०.३ ३. तत्रैव १०.४०.९ ४. तत्रैव १०.४०.१० ५. तत्रैव १०.४८.१९ ६. तत्रैव १०.४८.२० ७. तत्रैव १०.४८.२१
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