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रहता है । '
श्रीमद्भागवत में वर्णित आश्रय तत्त्व ही ब्रह्म है । इसमें श्रीकृष्ण और केवलानन्दानुभवमात्रसंवेद्य ब्रह्म में एकता स्थापित की गई है । ब्रह्मसूत्र के ब्रह्म, गीता के पुरुषोत्तम और श्रीमद्भागवत के श्रीकृष्ण एक ही वस्तु है । श्रीमद्भागवत का कथन है
श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्वं यज्ज्ञानमद्वयम् । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्धते ॥
अर्थात् तत्ववेत्तालोग ज्ञात और ज्ञेय से रहित अद्वितीय सच्चिदानंद ज्ञान को ही तत्त्व कहते हैं । उसे कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा नाम से पुकारते हैं । वही नारायण वासुदेव सात्वतपति, कृष्ण, आत्माराम, शांत एवं कैवल्यपति आदि नामों से अभिहित किया जाता है । चतुश्लोकी भागवत में स्वयं भगवान् द्वारा अपना स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था, मेरे अतिरिक्त स्थूल सूक्ष्म पदार्थ और उसका कारण अज्ञानादि कुछ नहीं था । जो कुछ भी है, वह सब मैं ही हूं । सब पदार्थ में विद्यमान होने पर भी माया के कारण मेरी प्रतीति नहीं होती है । मैं संपूर्ण प्राणियों में प्रविष्ट हूं लेकिन मेरे अतिरिक्त कुछ नहीं है । यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहीं - इस निषेध पद्धति से यह ब्रह्म है यह ब्रह्म है इस अन्वय की पद्धति से यही सिद्ध होता है कि वह सर्वातीत भगवान् सर्वत्रावस्थित है और वही एक वास्तविक तत्त्व है ।
इस चतुश्लोकी में यह स्पष्ट होता है कि ब्रह्म ही एक सत्य पदार्थ है, वह सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है और सबका अधिष्ठान है । वह निरपेक्ष है ।
व्यक्त और अव्यक्त जगत् सम्पूर्ण आपका ही रूप है । आप सर्वशक्तिमानकाल, सर्वव्यापक, अविनाशी सबके साक्षी हैं ।" जैसे एक ही अग्नि सभी लकड़ियों में व्याप्त रहती है वैसे ही आप सभी प्राणियों के सबके अधिष्ठान हैं पर स्वयं अधिष्ठान रहित हैं । आप सत्यसंकल्प हैं । आप विशुद्ध विज्ञानद्यन परमानन्द स्वरूप, निरतिशय, और सच्चिदानन्द स्वरूप हैं । आप आद्येश्वर, प्रकृति से परे,
अखण्ड, एकरस,
१. श्रीमद्भागवत १०.३.२५
२. तत्रैव १.२.११
३. तत्रैव १. ८.२१,२२,२७
४. तत्रैव २.९३२-३५
५. तत्रैव १०.१०.३०, ३१ ६. तत्र व १०.३७.१२,१३,२३
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आत्मा हैं । आप सर्वशक्तिमान् एवं
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