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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
सेवायाम और अदादिगणीय भंजोआमर्दने धातुओं से क्तिन प्रयत्न करने पर भक्ति पद की निष्पत्ति होती है ।
(१) भजसेवायाम् धातु से "स्त्रियांक्तिन्"" से भाव में क्तिन प्रत्यय करने पर सेवा, उपासना, गुणकथन आदि अर्थों में भक्ति की सिद्धि होती
भज इत्येष वै धातु सेवायां परिकीर्तिताः । तस्मात्सेवा बुधैः प्रोक्ता भक्ति साधन भूयसी ॥
(२) "भजो आमर्दनने" धातु से बाहुलकात् करण में क्तिन् प्रत्यय करने पर "अनिदिता हल उपधायाक्ङितिच" से उपधास्थित नकार का लोप "चो कुः" से चकार का गकार, तथा “खरिचेति' से गकार का ककार करने पर भक्ति की सिद्धि होती है, जिसका अर्थ होता है प्रणाशिका-शक्ति, भववन्धनविनाशिका, मायाविच्छदिका आदि । इस अर्थ में श्रीमद्भागवत में भक्ति पद का बहुशः प्रयोग उपलब्ध होता है-"भक्तिः आत्मरजस्तमोपहा" शोकमोहभयापहा "कामकर्मविमुक्तिदा"५ मायामोहादिरूपकषायभंजिका 'विशयविदूषितायविनाशिका" 'संसृतिदुःखोच्छेदिका', देहाध्यासप्रणाशिका', अशेषसंक्लेशशमदा", मृत्युपाशविशातनी भवरोगहन्त्री१२ इत्यादि अर्थों में किंवा विशेषणों से विशिष्ट भक्ति का प्रयोग भागवतकार ने किया है। स्वरुप
"सा तु परानुरक्तिरीश्वरे"१३ 'तदपिताऽखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति, सात्वस्मिन् परमप्रेमरूपा अमृतस्वरूपा च" अर्थात् पर१. सिद्धांतकौमुदी सूत्र संख्या ३२७२ (३.३.९४) २. गरुडपुराण अध्याय २३१ ३. श्रीमद्भागवत १.५.२८ ४. तत्रैव १.७.७ ५. तत्रैव १.९.२३ ६. तत्रैव १.१५.२९ ७. तत्रैव २.२.३७ ८. तत्रैव ३.५.३८ ९. तत्रैव ३.७.१२ १०. तत्रैव ८.७.१४ ११. तत्रैव ३.१४.४ १२. भागवतमहात्म्य ३७१ १३. शाण्डिल्य भक्तिसूत्र १ १४. नारद भक्तिसूत्र १९,२,३ क्रमश?
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