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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन जीव
श्रीमद्भागवत की वेदस्तुति में स्पष्ट रूप से जीव के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। जीव अल्पसत्त्व, सीमित, नाशवान्, मोहित और अल्पज होता है। भगवान् असीम, अनंत, अज नित्य और ज्ञानस्वरूप हैं। उन्हीं से यह जीव उत्पन्न होता है । भगवान् शास्ता और जीव शासित है।' दोनों में नियामकनियम्य भाव सम्बन्ध है। इससे अनुमित होता है कि जीव की उत्पत्ति प्रभु से हुई है । परन्तु वह प्रभु से किंचित् न्यून होता है।
जीव की उत्पत्ति जल बुद्बुदवत् होती है। जिस प्रकार जल बुद्बुदोत्पत्ति में जल उपादान कारण है वायु निमित्त कारण है। उपादान और निमित्त कारण के संयोग से बुबुद् नामक पदार्थ निर्मित होता है। यहां ध्यातव्य है कि यह जल बुदबुदा जल से अलग कोई पदार्थ नहीं है। इस प्रकार प्रकृति और पुरुष के संयोग से विभिन्न प्रकार के नाम रूप गुण से सम्पन्न जीवों की उत्पत्ति होती है । और अन्त में जैसे बुबुद् जल में, जल सरिता में और सरिता सागर में विलीन हो जाती है उसी प्रकार जीव भी निरुपाधिक होकर भगवान् में विलीन हो जाते हैं। प्रलय के समय संपूर्ण जीव प्रभु में ही समाहित हो जाते हैं। जिस प्रकार जल में होने वाली कम्पादि क्रिया, जल में दीखने वाले चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब में न होने पर भी भासती है, आकाशस्थ चन्द्रमा में नहीं उसी प्रकार देहाभिमानी जीव में ही देह के मिथ्याधर्मों की प्रतीति होती है परमात्मा में नहीं।
जीवों की संख्या असंख्य एवं अपरिमित है परन्तु ये नित्य नहीं होते हैं । ये स्वतंत्र सत्ता को धारण नहीं कर सकते । यदि जीव भगवान् की तरह नित्य और सर्वव्यापक हो जाये तो भगवान् और जीव में शास्ता शासित भाव उत्पन्न नहीं हो सकता है । भगवान् सभी जीवों में समान भाव से रहते हैं परन्तु दृष्टिगम्य या बुद्धिगम्य नहीं होते। बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है।
भागवतीय वेदस्तुति एवं अन्य स्तुतियों के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि परमार्थ दृष्टि में जीव और भगवान् दोनों एक ही है
१. श्रीमद्भागवत १०.८७.३० २. तत्रैव १०.८७.३१ ३. तत्रैव ४.९.१४ ४. तत्रैव १०.३.३१ ५. तत्र व ३,७.११ ६. तत्र व १०.३.१७
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