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दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टियां
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संगदोष रहित हो जाते हैं ।' सांख्याचार्य कपिल अपनी माता देवहूति के प्रति उपदेश देते हैं- " जिसका मन भगवान् वासुदेव में एकाग्र रूप से रमण करता है तो उसे भगवान् की अनिमित्ता भक्ति की प्राप्ति होती है जो सिद्धि से भी श्रेष्ठ है ।"
भक्ति का लक्ष्य
भगवान् सच्चिदानंद श्रीकृष्ण ही भक्ति के परम लक्ष्य हैं। एकांत "भक्ति के द्वारा भक्त भगवान् को प्राप्त कर लेते हैं । रुद्र स्तुत्यावसर पर प्रभु से निवेदित करते हैं
भवान् भक्तिमत्ता लभ्यः दुर्लभसर्वदेहिनाम् ।'
भक्ति आत्मविद्गतिदात्री है । भागवत भक्तों का यदि क्षणार्ध मात्र भी संगति हो जाती है तो वह संगति स्वर्ग, अपुनर्भव से भी श्रेष्ठ है, मर्त्यलोक के भोगों का तो कहना ही क्या। सभी कामनाओं को छोड़कर भागवत भक्त भगवान् वासुदेव का ही चरणरज प्राप्त करना चाहते हैं । भक्त जन वैसा कुछ भी नहीं चाहते जहां पर भगवच्चरणाम्बुजासव की प्राप्ति न हो । जैसे अजातपक्ष पक्षीशावक पक्षी को, सद्यः प्रसुत क्षुधार्त वत्स अपने माता (गाय) को तथा प्रिय अपने प्रियतम को पाने के लिए लालायित रहता है उसी प्रकार भक्त भी अरविंदाक्ष को ही प्राप्त करना चाहता है । "
भक्ति द्वारा भक्त देहादि की उपाधि से निवृत्त होकर प्रत्यगात्मा में स्थिर हो जाता है ।" भक्त विधूत भेदमोह होकर भगवान् स्वरूप ही हो जाता है । भगवान् के निर्मल यश के संकीर्तन से उत्पन्न भक्ति द्वारा चित्तस्थित तमोगुण एवं रजोगुण का विनाश हो जाता है और तब सत्वोद्रेक से भक्त परमानंद को प्राप्त करता है ।
सांसारिक कामनाओं, भोग विलाश ऐश्वर्य-विभूति, मोक्ष इत्यादि के स्थान पर विपत्ति की ही कामना करता है, क्योंकि विपत्तियों में प्रभु बारबार दर्शन देते हैं । '
१. श्रीमद्भागवत ३.२५.२२,२३
२. तत्रैव ३.२५.३३
३. तत्रैव ४.२४.३४
४. तत्रैव ४.२०.२४
५. तत्रैव ६.११.२६
६. तत्रैव ५.१.२७
७. तत्रैव १.९.४२
८.
तत्रैव १.८.२५
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