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तन्नः प्रसीद वृजिनार्दन तेऽङि प्रमूलं
प्राप्ता विसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशाः । स्वत्सुन्दर स्मित निरीक्षणतीव्रकामतप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम् ॥ अस्तित्व का विलय
श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
भक्ति में अपना कुछ नहीं होता । भक्त केवल उसी के सुख में सुखी और उसी के दुःख में दुःखी होता है। भक्त की चित्तवृत्तियां तदाकार होकर अनंत स्वरूप हो जाती है - वहां पर उसका सब कुछ उसके उपास्य के लिए हो जाता है । अपना सांसारिक अस्तित्व भी उसी में विलीन कर वह परम धन्य हो जाता है । अखण्ड रूप में वह उसी में रमण करने लगता है ।
सांसारिक भोगों से उपरतता
भक्त भक्ति की परिपूर्णता होने पर सांसारिक भोगायतन से उपरत हो जाता है । संसार में रहते हुए भी पंकजवत् निर्लिप्त रहता है । वह किसी प्रकार का भोगविलास, धन-ऐश्वर्य की कामना नहीं करता । वह वैसा भी नहीं चाहता जहां प्रभु चरणाम्बुजासव की प्राप्ति न हो सके
Tara Treats चिन् न यत्र युप्मच्चरणाम्बुजासवः । मोक्ष तिरष्करिणी
भक्ति मोक्ष से भी श्रेष्ठ है । भक्त जन हस्तगत अष्टसिद्धियों, मोक्ष आदि का भी तृणवत् परित्याग कर देते हैं
न नाकपृष्ठ न च सार्वभौमं न पारमेष्ठ्यं न रसाधिपत्यम् । न योगसिद्धीर पुनर्भवं वा वाञ्छन्ति यत्पादरजः प्रपन्नाः ॥ श्रीकृष्णाकर्षिणी
है ।
देवस्वरूप
भक्ति से भगवान् भक्त के वश हो जाते हैं । हरक्षण उन्हें भक्त का ख्याल रखना पड़ता है । हर अवसर पर, हरविपत्तियों में प्रभु को भक्त के साथ रहना पड़ता है ।
इस प्रकार भक्ति अनेक विशिष्टताओं से संवलित परमप्रेमरूपा रूप
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श्रीमद्भागवत में अनेक भक्त अपने-अपने उपास्यों की विभिन्न स्थलों
१. श्रीमद्भागवत १०.२९.३८
२. तत्रैव ४.२०.२४
३. तत्रैव १०.१६.३७,
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