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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठयं न सार्वभौम न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धिरपुनर्भवं वा समञ्जस त्वा विरहय्य काङ क्षे॥' शिव
शिव लोकमंगलकारक देव हैं। वैदिक काल से ही इनकी प्रसिद्धि प्राप्त है । वैदिक युग में मुख्यतः ये संहारकर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनका शिव स्वरूप पुराण साहित्य में अधिक विस्तृत हुआ है। इन्हें मंगलस्वरूप होने के कारण शिव कहा जाता है। समस्त प्रपंच से उपरत होकर अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं अतएव शिव नामाख्यात हैं। जो स्वयं ज्योतिस्वरूप परमार्थ तत्त्व हैं--
__ यत् तच्छिवाख्यं परमार्थतत्त्वं देव स्वयंज्योतिरवस्थितिस्ते ॥ श्रीमद्भागवतकार उनके मंगलस्वरूप का ही प्रतिपादन करते हैं।
आप स्वयं प्रकाश तथा चराचर प्राणी के रक्षक हैं। आप सम्पूर्ण जीवों के आत्मा तथा प्राणदाता, जगत् के आदि कारण हैं । आप काल हैं। धर्म भी आपका ही स्वरूप है । आपही प्रणव और त्रिगुणात्मिका प्रकृति हैं।' सर्वदेवस्वरूप अग्नि आपका मुख है, पृथिवी चरण कमल है, कालगति है, दिशाएं कान हैं तथा वरुण रसनेन्द्रिय हैं । आकाश नाभि है, चन्द्रमा मन और स्वर्ग सिर है। इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् आपका ही स्वरूप है अर्थात आप सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ तथा माया आदि के बन्धन से रहित स्वीय आत्मा में रमण करने वाले हैं।
आप भक्तों के, शरणगतों के रक्षक एवं जीवनदाता हैं। समस्त जगत् का एकमात्र आश्रय आपही हैं। आप शरणागत की पीड़ा नष्ट करने वाले एवं जगद्गुरु हैं। आप समस्त प्राणियों के आत्मा और जीवनदाता हैं। भक्तों पर महान् अनुग्रह करते हैं । जैसे लाठी लेकर चरवाहा अपने पशुओं की रक्षा करता है वैसे ही आप सम्पूर्ण प्राणियों के रक्षक हैं। आप अनन्त असुरों का विनाशकर जगत् का कल्याण करते हैं।
आप योगियों के परम आश्रय तथा भक्तों के परमलक्ष्य हैं। निर्वाण को त्यागकर भी भक्त आपकी भक्ति की ही याचना करता है। आपही अपनी १. श्रीमद्भागवत ६.११.२५ २. तत्रैव ८.७.२९ ३. तत्रैव ८.७.२५ ४. तत्रैव ८.७.२७ ५. तत्रैव ८.७.२२ ६. तत्रैव ८.७.२१ ७. तत्रैव ४.७.१४ ८. तत्रैव १२.१०.३४
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