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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
कार्य एवं मन की सीमा से परे, “सर्वभूतस्रष्टा,' "भक्तों के एकमात्र लक्ष्य" ‘“परमशासक’“ शरणागतों के आत्मा तथा माया से सर्प केचुलवत् सर्वथा
पृथक हैं ।
माया
श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में माया के अनिवर्वचनीय स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है । माया के कार्य को देखकर ही उसके स्वरूप का निर्धारण किया जा सकता है । यह आदिपुरुष की शक्तिभूता है, जिसके द्वारा वे जीवों की सृष्टि तथा पंचभूतों के द्वारा जीव शरीर की रचना करते हैं । यह त्रिगुणात्मिका सर्ग, स्थिति और संहारकारिणी है—
एषा माया भगवतः सर्गस्थित्यन्तकारिणी ।
त्रिवर्णा वर्णिताऽस्माभिः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥
भागवतीय सर्जनेच्छा ही माया है । सर्वाश्चर्यमय अज भगवान् अपनी निज शक्ति माया के द्वारा विश्व का सृजन करते हैं ।" इसी के प्रभाव से विद्याविद्या की सृष्टि होती है । स्वयं मायापति के शब्दों में- शरीरी जीवों के लिए मोक्षकरी विद्या एवं बन्धकरी अविद्या मेरी माया के द्वारा विनिर्मित की जाती है । भक्तजन इसी माया से मुक्ति चाहते हैं ।
इसी के प्रभाव से जीव अपने स्वरूप को भूलकर संसारान्धकुप में गिरते हैं । यह नित्यपातकी, दुःखदा, आवरणात्मिका है। अनादिरात्मा, निर्गुण, स्वयंज्योति पुरुष भी इसका आश्रय लेकर ही अपने आत्मस्वरूप को छोड़कर भिन्न रूप में अपने को कर्त्ता ओर भोक्ता मानते हैं ।" इसके संसर्ग मात्र से ही जीव विषयों का ध्यान करते-करते संसृति चक्र में फंस जाता है। "
माया विमोहन स्वभाव से युक्त है । जिससे मोहित होकर जीव
१. श्रीमद्भागवत १०.८७.१७, २८, ४०
२. तत्रैव १०.८७.१९
३. तत्रैव १०.८७.२३, ६.११.२४, २५
४. तत्रैव १०.८७.२७, २९
५. तत्रैव १०, ८७, ३४, ४.७.३०
६. तत्रैव १०.८७.३८, ४.७.३१, ४.९.७, ८.३.८
७. तत्रैव ११.३.१६
८. तत्रैव १.२.३०
९. तत्रैव ११.११.३
१०. तत्रैव ३.२६.६ ११. तत्रैव ३.२७.४
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