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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरूपे गुण-दोष एव वा । तथापि लोकाप्ययसंभवाय यः स्वामग्यया तान्यनुकालमृच्छति ॥
आप क्रीडा करने के लिए एवं जीवों के शोक मोहादि के निवारणार्थ पृथिवी पर विभिन्न रूप धारण करते हैं । क्षित्युद्धार और म्लेच्छ विनाश के लिए आप विभिन्न रूपों में अवतरित होते हैं । दैत्य, प्रमथ एवं राक्षस रूप विभिन्न राजाओं के विनाश एवं धर्म मर्यादा की रक्षा एवं यदुवंश की कीर्ति विस्तार के लिए आप कृष्ण के रूप में अवतरित हुए। आप अज्ञान एवं लोभमोहादि से सर्वथा रहित हैं, लेकिन धर्म गोपन एवं खलनिग्रहार्थं सगुण हो जाते हैं ।" असुर सेनापतियों को मारकर उन्हें मोक्ष एवं भक्त जनों के अभ्युदय किंवा रक्षा के लिए स्वयंप्रकाश इन्द्रिया तीत निर्गुण आप अवतार ग्रहण करते हैं ।
गो ब्राह्मण एवं समस्त पृथिवी के मंगल के लिए आप अवतरित होते
हैं
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अवतीर्णोऽसि विश्वात्मन् भूमेर्भारापनुत्तये ॥
और गोपियों के शब्दों में
न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् । विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान् सात्वतां कुले ॥
निर्गुण निराकार परमात्मा, आनन्दस्वरूप निष्कलब्रह्म अनेक कारणों से सगुण रूप धारण करते हैं ।
भक्तों के परमलक्ष्य
भागवत भक्त दिन-रात प्रभु चरण की प्राप्ति के लिये प्रयतित रहते हैं । वे चतुविधमोक्षादि को भी त्यागकर केवल चरण कमलों के मकरन्द की याचना करते हैं । भागवत भक्त वैसा कुछ भी नहीं चाहता जहां भगवच्चरजांबुजासव की प्राप्ति न हो ।" परम प्रभु को छोड़कर स्वर्ग, ब्रह्मलोक,
१. श्रीमद्भागवत ८.३.८
२. तत्रैव १०.४०.१६
३. तत्रैव ३०.४०.१८, २२
४. तत्रैव १०.३७.१४, १०.४८.२४
५. तत्रैव १०.२७.५
६. तत्रैव १०.२७.९
७. तत्रव १०.२७.२१ ८. तत्रैव १०.३१.४
९. तत्रैव ४.९.१७ १०. तत्रैव ४.२०.२४
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