________________
दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टियां
१२५
स्वामी, समस्त क्षेत्रों के एक मात्र ज्ञात एवं सर्वसाक्षी हैं। आप स्वयं ही अपने कारण हैं । आप सबके मूल कारण हैं, आपका कोई कारण नहीं । कारण होने पर भी आप में विकार नहीं होता इसलिए आप अद्भुत कारण हैं। जैसे समस्त नदी-झरणों आदि का परम आश्रय समुद्र है वैसे ही आप समस्त वेद और शास्त्रों के परम तात्पर्य हैं। आप जगत् के मूल कारण हैं और समस्त भूत समुदाय के हृदय पुरुष रूप में विद्यमान हैं, सम्पूर्ण जगत के एक मात्र स्वामी हैं, आपही के कारण इस संसार में चेतना का विस्तार होता है। आप स्थूल, सूक्ष्म, समस्त गतियों के जानने वाले तथा सबके साक्षी हैं। आप नामरूपात्मक विश्व प्रपंच का निषध तथा उसके अधिष्ठान होने के कारण विश्व रूप भी हैं। आप कर्तापन से रहित निष्क्रिय हैं तथापि अनादि काल से शक्ति को स्वीकार करके प्रकृति गुणों के द्वारा आप इस विश्व की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय की लीला करते हैं क्योंकि आपकी लीलाएं अमोघ हैं । आप सृष्टिकर्ता, सर्वयोनियों के स्रष्टा, सबके उत्पत्ति एवं लय स्थान हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के अधिष्ठान हैं, सबके आधार
तव परि ये चरन्त्यखिलसत्त्वनिकेततया । सृष्टि के कर्ता : पालक और संहारक
आप स्वयं समस्त क्रियाओं, विकारों एवं गुणों से रहित हैं फिर जगत की सृष्टि, स्थिति और संहार के लिए आप तीनों गुणों- रज, सत्त्व और तम को धारण करते हैं अथवा आप गुणों के आश्रय स्थान हैं। आप लोक रक्षणार्थ अपनी माया से सत्त्वमयरूप, उत्पत्ति के लिए रजःप्रधान रक्तवर्णमयरूप और प्रलय के लिए तमःवर्ण प्रधान रूप धारण करते हैं । इन्द्रियातीत, समस्त भाव विकारों से रहित होकर भी आप इस चित्र-विचित्र जगत् का निर्माण करते हैं और स्वयं इसमें आत्मारूप में प्रवेश भी करते हैं। आप क्रियाशक्ति (प्राण) और ज्ञानशक्ति (जीव) के रूप में जगत् का पालन-पोषण करते हैं। चन्द्रमा की कांति, अग्नि का तेज, सूर्य की प्रभा, नक्षत्र और विद्युत् १. श्रीमद्भागवत १०.४०.२ २. तत्रैव ८.३.१५ ३. तत्रैव ८.३.२ ४. तत्र व १०.८७.२४ ५. तत्रैव १०.८७.२७ ६. तत्र व १०.३.१९ ७. तत्र व १०.३.२० ८. तत्रैव १०.८५.५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org