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४. दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टियां
इस महापुराण में अनेक विषयों-दर्शन, भक्ति, कर्म, ज्ञान आदि का विवेचन उपलब्ध होता है । प्रस्तुत सन्दर्भ में भागवतीय स्तुतियों में विद्यमान दार्शनिक विचारों पर प्रकाश डाला जायेगा ।
श्रीमद्भागवत का प्रथम मांगलिक श्लोक ही उसके दार्शनिक स्वरूप को स्पष्ट कर देता है
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् । तेने ब्रह्म हृदाय आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः ॥ तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा । धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥' इस प्रथम श्लोक में ही परमसत्य के चिन्तन का निर्देश है। जिससे इस जगत् की सृष्टि स्थिति और प्रलय होते हैं, वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत है और असत् पदार्थों से पृथक् है, जड़ नहीं चेतन है, परतंत्र नहीं स्वतंत्र है, स्वयं प्रकाश है, जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं प्रत्युत उन्हें संकल्प से ही वेद ज्ञान का दान किया है । जिसके सम्बन्ध में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं, जैसे तेजोमयी सूर्यरश्मियों में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत् स्वप्नसुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान सत्ता से सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयं प्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा अपने मायाकार्य से मुक्त रहने वाले परमसत्य रूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं।
इस एक ही श्लोक में परमसत्य परमात्मा, ईश्वर, माया, जीव, और जगत् के स्वरूप को उद्घाटित कर दिया गया है । वह परब्रह्म परमेश्वर ही श्रीमद्भागवत का प्रतिपाद्य है जो जगत् का उपादान और निमित्त कारण दोनों है । वह सृष्टि स्थिति और लय तीनों का आधार है । वह स्वयं प्रकाश, सर्वव्यापक, चेतन, तथा अवाङ्मनसगोचर है । ब्रह्मा, हिरण्यगर्भादि नामाख्यात ईश्वर उसी के शक्ति के आधार पर अपनी सत्ता धारण करते हैं । माया उसकी अपनी शक्ति है जो जगत् को विमोहित कर देती है ।
जगत् की सत्ता भ्रमात्मक है वह सत्यस्वरूप नहीं बल्कि जैसे सूर्य की १. श्रीमद्भागवतमहापुराण १.१.१
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