Book Title: Shrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 135
________________ भागवत की स्तुतियां : स्रोत, वर्गीकरण एवं बस्तु विश्लेषण १०२ किया और देवों को अमृत पिला दिया तब भगवान् शंकर वृषभारूढ़ होकर सती के साथ मधुसूदन के निज धाम गये और स्तुति करने लगे ।' समस्त देवों के आरध्यदेव ! आप विश्वव्यापी, जगदीश्वर एवं जगत्स्वरूप हैं । समस्त चराचर पदार्थों के मूल कारण ईश्वर और आत्मा भी आप ही हैं । इस जगत् के आदि, अन्त और मध्य आप से ही होते हैं, परन्तु आप आदि, मध्य, अन्त से रहित हैं । आपके अविनाशी स्वरूप में द्रष्टा - दृश्य एवं भोक्ता भोग्य का भेदभाव नहीं है। वास्तव में आप सत्यचिन्मात्र ब्रह्म ही हैं। स्तोत्र से भगवान् की अदिति गर्भधारण करने के लिए उद्यत हुई। पहले महर्षि कश्यप स्नान कर भगवत्स्तुति करने का उपदेश करते हैं । " पयोव्रत" का अनुष्ठान करने से अनुष्ठाता की सारी इच्छाएं शीघ्र ही पूर्ण हो जाती हैं । " पयोव्रत" के अवसर पर सौभाग्यवती स्त्रियों द्वारा कश्यपोदिष्ट स्तुति करने का विधान है। सत्तरहवें अध्याय में दो स्तुतियां हैं- अदिति कृत एवं ब्रह्मा-कृत ब्रह्माकृत स्तुति के विषय में पहले लिखा जा चुका | जब अदिति कश्यपोदिष्ट स्तुति के द्वारा भगवान् की उपासना करती है तब भगवान् साक्षात् प्रकट हो जाते हैं । उस लोकनाथ को देखकर माता अदिति स्तुति करने लगती है- आप यज्ञ के स्वामी हैं और यज्ञ भी स्वयं आप ही हैं। अच्युत ! आपके चरणकमलों का आश्रय लेकर लोग भवसागर से तर जाते हैं । आपके यशकीर्तन का श्रवण भी संसार से तारने वाला है । आपके नामों के श्रवणमात्र से ही जगत् का कल्याण हो जाता है । आदिपुरुष ! जो आपकी शरण में आता है उसके सारे कष्टों को आप सद्य: दूर कर देते हैं । आप विश्व के कारण तथा हृदयस्थ अन्धकार के विनाशक हैं । विश्वाय विश्वभवनस्थितिसंयमाय स्वैरं गृहीतपुरशक्तिगुणाय भूम्ने । स्वस्थाय शश्वदु हितपूर्ण बोधव्यापादितात्प्रतमसे हरये नमस्ते || एक अन्य अवसर पर जब अनन्त प्रलयजल में धरती डुबी जा रही थी और राजा सत्यव्रत का कोई अन्य शरण्य नहीं रहा तब वैसी स्थिति में अथाह जल में डूबने से पृथिवी को कौन बचायेगा, ऐसा विचार कर राजा ने समस्त इन्द्रिय, मन और बुद्धि को उस सर्जनहार के चरणों में स्थापित कर दिया और भगवान् प्रकट हो गये मत्स्य के रूप में, जगत् का उद्धार करने १. श्रीमद्भागवत ८।१२।४-१३ २. तत्रैव ८।१२।४-५ ३. तत्रैव ८।१६।२९-३७ ४. तत्रैव ८।१७।८-११ ५. तत्र व ८।१७।९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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