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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन प्रजा के दारिद्रय से कारुणा होकर पृथिवी को दमन करने के लिए पृथ चले । पृथु के क्रोध को देखकर पृथिवी थर-थर कांपती हुई हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगी। इस आठ श्लोकी आर्त स्तुति में राजा में नारायणत्व का आरोप किया गया है या राजा को साक्षात् नारायण स्वरूप ही प्रतिपादित किया गया है । पृथिवी कहती है---
नमः पस्मै पुरुषाय मायया, विन्यस्तनानातनवे गुणात्मने । नमः स्वरूपानुभवेन निर्धत-द्रव्यक्रियाकारकविभ्रमोर्मये ।'
इसी स्कन्ध के बीसवें अध्याय में विश्वविख्यात सम्राट् पृथु द्वारा अपने यज्ञशाला में उपस्थित विष्णु की स्तुति की गई है। यह स्तुति पूर्णतः निष्काम भावना पर आधारित है । भक्त वैसा कुछ भी नहीं चाहता जहां भगवान् के चरण रज की प्राप्ति न हो। वह हजारो कान मांगता है जिससे अहर्निश भगवान् के गुणों का श्रवण कर सके
न कामये नाथ तदप्यहं क्वचित्, न यत्र युष्मच्चरणाम्बुजासवः । महत्तमान्तह दयान्मुखच्युतो, विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वरः।।'
___ इस स्तुति में नव श्लोक हैं जो भक्ति की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें भक्त केवल भगवद्पदाम्बुजासवः की ही कामना करता है। पंचम स्कन्ध की स्तुतियां
___पंचम स्कन्ध में अग्नि, सूर्य, चन्द्र एवं भगवान् विष्णु के विभिन्न अवतारों की स्तुतियां उपन्यस्त हैं। लगभग १६ स्तुतियां हैं । १२ वें अध्याय में रहूगण द्वारा जडभरत की ८ श्लोकों में स्तुति की गई है। राजारहूगण कहते हैं ---भगवन् ! मैं आपको नमस्कार करता हूं। आपने जगत् का उद्धार करने के लिए ही यह देह धारण की है। योगेश्वर ! अपने परमानन्दमय स्वरूप का अनुभव करके आप इस स्थूल शरीर से उदासीन हो गये हैं, तथा एक जड ब्राह्मण के वेष से अपने नित्यज्ञानमय स्वरूप को जन साधारण की दृष्टि से ओझल किए हुए हैं।"
__ इलावत वर्ष में भगवान शंकर चतुर्वृह मूर्तिर्यों में से अपनी कारण रूपा संकर्षण नाम की तमःप्रधान मूर्ति का ध्यानावस्थित मनोमय विग्रह के रूप में चिन्तन करते हुए स्तुति करते हैं । १. श्रीमद्भागवत ४।१७।२९-३६ २. तत्रैव ४।१७।२९ ३. तत्र व ४२०।२४ ४. तत्रैव ४।२०।२३ ५. तत्रैव ५।१२।१ ६. तत्र व ५।१७।१७-२४
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