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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
-जो परमेश्वर हैं अत्रि के आश्रम -- - ऋक्षनामक कुल पर्वत पर प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं । प्रभु का प्रत्यक्ष दर्शन पाकर अत्रि स्तुति करते हैं
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भगवन् प्रत्येक कल्प के आरंभ में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिए जो माया के सत्त्वादि तीनों गुणों का विभाग करके भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं—वे ब्रह्मा, विष्णु और महादेव आप ही हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूं।'
धर्म की पत्नी समस्त गुणों के आगार मूर्त्तिदेवी के गर्भ से जब नरनारायण ऋषि उत्पन्न हुए तब समस्त देवगण उन ऋषियों की स्तुति करने लगेजिस प्रकार आकाश में तरह-तरह के रूपों की कल्पना की जाती है, उसी प्रकार जिन्होंने अपनी माया के द्वारा अपने ही स्वरूप के अन्दर इस संसार की रचना की है, और अपने उस स्वरूप को प्रकाशित करने के लिए इस ऋषि विग्रह के साथ धर्म के घर आपको प्रकट किया है, उन परम पुरुष को हमारा नमस्कार है ।'
दक्षयज्ञ शाला में भगवान् विष्णु हविष्यान्नग्रहण करने के लिए प्रकट हुए । सर्वनियंता प्रभु को देखकर उस यज्ञशाला में उपस्थित सभी लोग अपने हृदय के भावनाओं को हृदयेश के प्रति समर्पित किए। दक्ष, ऋत्विज, सदस्य, रुद्र, भृगु, ब्रह्मा, इन्द्र, याज्ञिक - पत्नियां, ऋषिगण सिद्धगण, यजमान पत्नियां, लोकपाल, योगेश्वर, वेद, अग्नि, देवगण, गन्धर्व, विद्याधर, ब्राह्मणगण आदि भक्त भगवान् विष्णु की स्तुति करते हैं। हाथ जोड़कर प्रजापति दक्ष सर्वप्रथम भगवान् की स्तुति करते हैं भगवान् ! अपने स्वरूप में आप बुद्धि की जाग्रदादि संपूर्ण अवस्थाओं से रहित, शुद्ध चिन्मय, भेदरहित एवं निर्भय हैं । आप माया का तिरस्कार करके स्वतंत्र रूप से विराजमान हैं। तथापि जब माया से ही जीव भाव को स्वीकार कर उसी माया में स्थित हो जाते हैं, तब अज्ञानी के समान दिखाई पड़ते हैं ।
अन्त में ब्राह्मणदेवता स्तुति करते हैं
त्वं ऋतुस्त्वं हविस्त्वं हुताशः स्वयं त्वं हि मन्त्र : समिद्दर्भपात्राणि च । त्वं सदस्यत्वजो दम्पती देवता अग्निहोत्रं स्वधा सोम आज्यं पशुः ॥ "
बालक ध्रुव पिताकुल से तिरस्कृत होकर संसार के पिता की प्राप्ति कामना से श्वासावरोध कर तप करता है । उसके श्वासावरोधन से पवन
१. श्रीमद्भागवत ४।१।२८
२. तत्रैव ४|१|५६
३. तत्रैव ४।७।२६-४७
४. तत्रैव ४।७।२६ ५. तत्रैव ४।७।४५
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