Book Title: Shant Sudharas Part 02
Author(s): Ratnasenvijay
Publisher: Swadhyay Sangh

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Page 9
________________ रह पाता। 'प्रध्यात्मबिन्दु' ग्रन्थ में कहते हैं हर्षवर्धन उपाध्याय : 'यद्दर्शनाच्च न परं पुनरस्ति दृश्यम् ।' यदि आत्मा को देख लिया, अब देखने लायक दूसरा कुछ है ही नहीं। लेकिन कैसे करें हम आत्मदर्शन ? हम निरे शरीरदर्शी, हम प्रात्मदर्शी बनें तो कैसे बनें ? इसीलिए है शब्द : 'भावय रे....।' अनुभव कर । प्रागे चलते ही जायो। शरीर से आगे, नाम-रूपमय इस संसार के आगे। इसीलिए यह (Pushing) पुशिंग: 'धपुरिदमतिमलिनम्' देख तो सही, क्या है तेरी इस काया में ? पवित्र माचारांग सूत्र की एक पंक्ति है : प्रतो अंतो पुइ देहंतराणि पासइ । साधक इस शरीर के भीतर भरी हुई अशुचि को | गन्दगी को देखे । यह एक प्रकार का (Pushing) पुशिंग हुअा। एक आघात । जिस देह को लाइफबॉय एवं लक्स या लिरिल से घिस घिस कर नहलाया; पाखिर वह है कैसा? भीतर तो वह गन्दगी से भरा हुआ है ही; बाहर भी क्या बिखेरता है वह ? यह आघात अन्त में साधक को आत्मदर्शन तक ले जा सकता है। Invitation Card (इन्विटेशन कार्ड)-शान्त सुधारस ही तो प्रापके हाथ में है। जब चाहे तब आप भीतर की प्रानन्दमयी सृष्टि में जा सकते हैं। विद्वद्वर्य मुनिश्री रत्नसेन विजयजी ने अपने सरल एवं सरस अनुवाद व विवेचन द्वारा ग्रन्थ के रहस्य को आपकी भाषा में प्रस्तुत किया है। मैं चाहता हूँ कि मुनिश्री ऐसे अनेक ग्रन्थरत्नों का सुबोध अनुवाद कर विशालसंख्यक हिन्दीभाषी तत्त्वज्ञों / तत्त्वाथियों के लिए जैन शास्त्रागार के द्वार खोलें । जैन उपाश्रय -प्राचार्य यशोविजय सूरि पाड़ीव-३०७ ००१ जिला-सिरोही (राज.)

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