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भगवान् ऋषभदेव का पुण्य-स्मरण, उनकी पावन स्मृतियाँ, उनकी पुनीत यादें हमारे अन्तर-मन को आनंदविभोर कर देती हैं। उस आदि यग-पुरुष के, प्रथम तीर्थकर के जीवन से सम्बन्धित कोई भी घटना पर उभरती है--भले ही वह उनके जन्म-कल्याणक की हो, दीक्षा के प्रसंग की हो, वर्षीतप के पारणे की हो, केवलज्ञान की हो या निर्वाण के समय की हो, तो जीवन का कण-कण आनंद से आप्लावित हो जाता है। उस आनंद को अभिव्यक्ति देने के लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं है। उस विराट् पुरुष का जीवन एक ऐसा क्षीर-सागर है, जिसका न कोई किनारा है, न कोई सीमा है। जिस ओर से भी उसका पान करें, अमृत-मधुर है वह। उनके पश्चात् हुए सभी तीर्थंकरों ने, गणधरोंने, आचार्यों ने और स्वयं भगवान् महावीर ने उनकी महिमा का गान किया है। आज भी हम उनके गुणों का कीर्तन कर रहे हैं, अनंत भविष्य में भी करते रहेंगे। इस तरह क्या उनके जीवन की सीमा अंकित की जा सकेगी? और हम यह कह सकेंगे कि अब उनके संबंध में कहने के लिए हमारे पास कुछ शेष नहीं रहा? ऐसा नहीं होगा, कभी नहीं होगा। सागर के किनारे मिल सकते हैं, परन्तु प्रभु के जीवनरूपी क्षीरसागर का कोई किनारा नहीं है।
भगवान् ऋषभदेव के अवतरण का युग भोग-युग था। उस युग का मानव, जीवनोपयोगी कर्म करना, श्रम करना नहीं जानता था। वह प्रकृति पर निर्भर था। धीरे-धीरे प्रकृति की शक्ति क्षीण होने लगी। जितना प्रकृति से प्राप्त था, उसका उपभोग करने वाले संख्या में उससे कहीं अधिक हो गये थे। साधनों को उत्पन्न करने की, उत्पादन को बढ़ाने की कला उस युग का मानव जानता नहीं था। अतः अभावग्रस्त मानव भूख से आकुलव्याकुल हो गया। मनीषी पुरुषों ने कहा है-- “खुहासमा वेयणा नत्थि ।” संसार में जितनी वेदनाएं हैं, जितने प्रकार के दुःख हैं, उनम सबसे भयंकर वेदना क्षुधा (भूख) की है। इसलिए कहा गया है कि ऐसा कौन-सा पाप है, जो भूखा आदमी नहीं कर सकता। भूख के क्षणों में वह हर बुरे-से-बुरे पाप को करने के लिए तैयार हो जाता है। कोई ऐसा पाप कार्य, बुरा कार्य नहीं है, जो बुभुक्षित न कर ले-- "बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ?"
ऐसे अंधकारपूर्ण समय में व्यक्ति का पथ से भटक जाना, छीना-झपटी एवं संघर्षों का उग्र रूप धारण कर लेना स्वाभाविक है। व्यक्ति को पतन के गर्त में गिरने में देर नहीं लगती, परन्तु संभलने में, ऊपर उठने में समय लगता है। ऐसे समय में अपने आपको संतुलित रख पाना आसान काम नहीं है। गहन अंधकार के समय मार्गदर्शन करने वाला तथा प्रकाश देने वाला सौभाग्य से कोई विरल पुरुष ही होता है? उस युग की जनता का सौभाग्य था, उस युग की जनता का ही क्यों, हमारा भी सौभाग्य था कि आदि युग-पुरुष भगवान् ऋषभदेव ने मानव-जाति को मानवोचित जीवन जीने की कला सिखाई, यथोचित कर्म करके सुख-भोग भोगने की नयी प्रेरणा दी, कर्म एवं श्रम-निष्ठ जीवन जीने की शिक्षा दी। मैं उन्हें भारत का सर्वप्रथम कर्मयोगी मानता है। श्री कृष्ण को कर्मयोगी कहते हैं, लेकिन वे बहुत उत्तरकाल में हुए हैं, परन्तु सबसे पहले कर्म का, श्रम का संदेश देने वाले वे ही विराट् पुरुष थे, जिन्होंने कहा था--केवल कल्पवृक्षों के सहारे तथा प्रकृति के भरोसे, बिना कर्म किए, हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहना उचित नहीं है। बिना श्रम किए भोगमय जीवन जीने की चिरागत परंपरा समाप्त हो गई है। भोग-भूमि का युग अब समाप्त है। भोग-भूमि का अर्थ है--भोग-उपभोग तो करें, किन्तु कर्म न करें। परन्तु यग परिवर्तन के साथ व्यवहार में भी परिवर्तन करना होगा। बिना व्यवहार को बदले जीवन का विकास कथमपि संभव नहीं है। इसलिए कर्म-भूमि का युग आ गया है। अब बस कर्म करो। जीवन-यात्रा को सुख-समृद्धि के राजपथ पर आगे बढ़ाने के लिए श्रम करना आवश्यक है।
भगवान ऋषभदेव आध्यात्मिक साधना के, मोक्ष-मार्ग के प्रथम उपदेष्टा, प्रथम तीर्थंकर ही नहीं, जीवन जीने की कला को सिखानेवाले प्रथम शिक्षक एवं कलाकार भी थे। उन्होंने असि, मसी और कृषि की शिक्षा दी। जीवन की सुरक्षा के लिए असि (तलवार) अर्थात् शस्त्र-विद्या सिखाई, व्यापार-व्यवहार चलाने के लिए मसी-- लिखने-पढ़ने की कला सिखाई और जीवन-यापन के लिए कृषि-कर्म-खेती आदि उद्योग-धंधे सिखाये। मध्ययुग से आज तक जैनों का जिससे बराबर टकराव रहा और अहिंसा के नाम पर लगातार जिससे इनकार किया जाता रहा, भगवान् ऋषभदेव ने उस असि अर्थात् तलवार का सर्व-प्रथम शिक्षण दिया। उसमें, जैसा कि एकान्त समझा जाता है, हिंसा की, मारकाट की मनोवृत्ति नहीं, बल्कि अहिंसा की, रक्षा की भावना ही मुख्य थी। उन्होंने आत्म-रक्षा के लिए शस्त्र-विद्या का उपदेश दिया। बाह्य आक्रमणों से अपना, परिवार का, समाज का एवं देश का संरक्षण करने के लिए मनुष्यों के हाथ में तलवार दी। इस प्रकार भगवान् सर्व-प्रथम क्षात्रधर्म के उपदेशक थे।
आदिगुरु ऋषभदेवः
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