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शत्रु-मित्र में यश-अपयश में हानि-लाभ में सुख में दुःख में सहज तुल्यता समरसता ही दीक्षा का सत्यार्थ बोध है इसीलिए दीक्षा का सत्पथ नहीं नरक लोक को जाता नहीं स्वर्ग लोक के प्रति ही वह जाता है मात्र मोक्ष को।
और मोक्ष है, 'स्व' का 'स्व' में सदा-सदा के लिए निमज्जन!
'मैं' 'त' में मिल जाए, 'त' 'मैं' में मिल जाए, प्राण-प्राण में सदा-सदा को निजता ममता धुल-मिल जाए, जो भी है समरस हो जाए, यह अनुपम अद्वैत योग ही जिन-दीक्षा का विमल योग है!
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सागर, नौका और नाविक
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