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वही अहंकार है, वही घृणा है और वही है राग-द्वेष । कुछ भी तो अन्तर नहीं है। कहाँ आ फंसा मैं यहाँ। यह सब इसलिए होता है कि भद्र साधकों को साधना की सही दृष्टि नहीं दी जाती। परिणाम-स्वरूप अनेक दीक्षितों से कभीकभी सुनने को मिलता है कि, क्या करें? साधना हो तो रही है, पर वह सब ऊपर-ऊपर से हो रही है। भीतर में कोई परिवर्तन नहीं, कोई नयी उपलब्धि नहीं। इस प्रकार एक दिन का वह प्रसन्नचित्त वैरागी अपने में एक गहरी रिक्तता का अनुभव करने लगता है। और कभी-कभी तो उसका अन्तर्मन ग्लानि से इतना भर उठता है कि विक्षिप्तता की भूमिका पर पहुँच जाता है, और कुछ-का-कुछ करने पर उतारू हो जाता है। आज की साधु संस्था के समक्ष यह एक ज्वलंत समस्या है, जो अपना स्पष्ट रचनात्मक समाधान चाहती है। हमारे उपदेश की भाषा और साधना की पद्धति अधिक स्वस्थ और मनोवैज्ञानिक होनी चाहिए, ताकि दीक्षित व्यक्ति को अपने में रिक्तता का अनुभव न करना पड़े, उसे अपनी स्वीकृत साधना से यथोचित सन्तोष हो सके। अगर ऐसा कुछ हो सका, तो निश्चित ही उसकी सम्यक प्रतिक्रिया व्यक्ति पर तो होगी ही, समाज पर भी अवश्य होगी। समाज में दीप्तिमान तेजस्वी एवं स्व-पर-हिताय सक्रिय साधु-संगठन निर्मित हो, इसके लिए साधु-संस्था को वैज्ञानिक प्रयोगशाला की तरह प्रत्यक्षतः उपलब्धि का केन्द्र होना जरूरी है, जहाँ जीवन की गहराइयों को सूक्ष्मता से समझा जा सके, अन्तर की सुप्त ऊर्जा के विस्फोट के लिए उचित निर्णायक प्रयास हो सके। इसके लिए चेतना पर पड़े अनन्त दूषित आवरणों को, परतों को, विकल्पों को एवं मिथ्या धारणाओं को दूर करना होगा। दीक्षा में छोड़ने के मूल मर्म को समझना होगा। परिवार तथा समाज की पूर्व प्रतिबद्धताओं में से बाहर निकल आने का अर्थ परिवार तथा समाज से घृणा नहीं है, खिन्नता नहीं है। अपितु, यह तो विराट की खोज के लिए क्षद्र प्रतिबद्धताओं को लांघ कर एक अखण्ड विराट चैतन्य-धारा के साथ एकाकार होना है। वह अभूमा से भूमा की यात्रा है, व्यष्टि से समष्टि में लीन होने की एक आन्तरिक प्रक्रिया है, जहाँ पहुँचने पर छोड़ा और न छोड़ा सब एक हो जाते हैं। सागर में जैसे सब जलधाराएँ समाविष्ट हो जाती हैं, वैसे ही दीक्षित की विराट चेतना में अपने-पराये सब एक हो जाते हैं। अलग से कोई भी बच नहीं रहता है। परिवार तथा समाज को छोड़ देने की केवल एक चलती भाषा बच रहती है, अन्यथा प्राणिमात्र के प्रति भावात्मक एकता में किसी को कहीं छोड़ देने जैसा क्या-कुछ रहता है ?
दीक्षार्थी अपने अन्दर में शुद्धत्व के लिए गति करता है और बाहर में समाज के शुभत्व के लिए यत्नशील होता है। अतः हमें किसी को साधु इसलिए नहीं बनाना है कि संसार असार है, स्वार्थी है, झूठा है। अपितु, इसलिए बनाना है कि शरीर, इन्द्रिय और मन आदि की अनेकानेक सूक्ष्म एवं साथ ही सघन परतों के नीचे दबा अनन्त चेतना का जो अस्तित्व है, उसकी उपलब्धि एवं अभिव्यक्ति ही साधक जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य है, उसकी खोज दीक्षार्थी प्रशान्त मन-मस्तिष्क से कर सके। यह वह स्थिति है, जहाँ परिवार या समाज के छोड़ने या छूट जाने का अच्छाबुरा कोई विकल्प ही मन में नहीं रहता। इस अर्थ में छोड़ने और छूटने का पूर्ण विस्मरण हो जाता है। यह त्याग का भी त्याग है, 'मच्' धातु के कर्तत्व का विसर्जन है, जो आज के साधु जीवन मे ठीक तरह से हो नहीं पा रहा है। अस्तु, दीक्षा सहजानन्द की प्राप्ति के द्वारा अन्तर्मन की रिक्तता को समाप्त कर देती है, परम सत्य के निर्मल एवं शाश्वत आलोक के लिए द्वार खोल देती है। परम-चेतना की खोज के लिए साधु-जीवन एक अवसर है। यह अन्तिम साध्य नहीं, बीच का एक साधन है। इसके द्वारा साधक अपने परम चैतन्य-स्वरूप स्व-तत्त्व के निकट पहुँच सकता है, उसका सम्यक्-बोध कर सकता है, उसे पा सकता है, बस यही अन्तर्जगत् की दृष्टि से दीक्षा के सही मूल्य की उपलब्धि है, दीक्षा की सही उपयोगिता है।
बाह्य जगत की दृष्टि से दीक्षा का उद्देश्य जनता में अशुभ की निवृत्ति एवं शभ की स्थापना है। जनता को हर प्रकार के अन्ध-विश्वासों से मुक्त करना और उसे यथार्थ सत्य का परिबोध कराना, साधु-जीवन का सामाजिक कर्तव्य है। साधु, अन्धकार का नहीं, प्रकाश का प्रतीक है, अशान्ति का नहीं, शान्ति का सन्देशवाहक है, भ्रान्ति का नहीं, क्रान्ति का पक्षधर है । वह समाज का निर्माता है, समाज के नैतिक-पक्ष को उजागर करनेवाला है। वह अन्दर में तो मूक, चुपचाप निष्क्रियता से प्रवेश करता है, किन्तु बाहर समाज में उसका प्रवेश सिंहनाद के साथ पूर्ण सक्रियता से होता है। अतः दीक्षित साधुओं का सामाजिक दृष्टि से प्राथमिक शिक्षा-सूत्र होना चाहिए, तुम सर्वप्रथम केवल एक मनुष्य हो। तुम्हारी कोई जाति नहीं है, तुम्हारा कोई पंथ, वर्ण या वर्ग नहीं है। न तुम्हारा कोई एक प्रतिबद्ध समाज है, और न राष्ट्र है। तुम सब के हो, और सब तुम्हारे हैं। तुम एक विश्व-मानव हो। विश्व की हर अच्छाई तुम्हारी अपनी है। तुम्हारा हर कर्म विश्व-मंगल के लिए प्रतिबद्ध है । तुम्हारी अहंता और ममता का उदात्तीकरण
दीक्षा : दूसरा जन्म
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