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वीरायतन-दर्शन
कवि, अलसित पलकों को खोलो, करो तनिक दग-उन्मीलन, देखो गिरि वैभार-तटी में विरमित युग-यति महा-श्रमण, रूठी मानवता, मानव-घर लौट रही, मंगल गाओस्वर्ग न नभ में भू-तल पर है, आज तथ्य यह निरावरण । भूलो मत करुणा-सेवा का सागर संमुख लहराता, वीरायतन वीर-शासन का दृश्य मनोहर दिखलाता।
सना समत्व-सुरभि से यह थल, त्याग-विभा से अमल-धवल, तप, निर्जरा, आत्म-दर्शन ही जीवन-लक्ष्य यहाँ अविचल, ज्ञान-मेरु हो, ध्यान-मरु हो, यहाँ न आरोहण मुश्किलचाहे जो भी चढ़े शिखर तक लेकर श्रद्धा का संबल। यहाँ दिवस कल्याण बाँटता, आत्म-विचिन्तन शान्त निशा, शुचिता, भक्ति, विनयिता सब को सतत दिखाती सही दिशा।
तुम कवि हो तो यह कवि-गुरु का मंगलप्रद उपक्रम मनहर, करते सुन्दरता को सुन्दर पुण्य शिशपा के तरुवर, प्रकृति-गोद में इन तरुओं का जीवन कितना मोद भराएक-एक से होड़ कर रहे छूने को ऊपर अम्बर । विष के बदले अमत, यहीं तो मत्यु बीच जीवन मिलता, प्रेम देवता के हाथों से चिर-मरु में सरसिज खिलता।
जो कुछ भी है यहाँ सत्य, शिव, मनहारी, सुखकर, सुन्दर, प्रति-पल नूतन वेष बनाकर नटी-निसर्ग नृत्य-तत्पर, सुमन-सुमन हैं यहाँ दूब भी आँखों को शीतल करतीरूपराशि की खोजों में ही सचकित उर ये शैल-शिखर । छवि का भूखा मनुज यहाँ आ मत्त कलापी बन जाता, एक अपूर्व अचिन्त्य लोक में वह बस अपने को पाता।
एक-एक कर कितनी स्मृतियाँ मन-प्राणों में लहरातीं, किंकर्तव्य-विमूढ़, भ्रमित को बोध-विचिन्तन दे जाती, गंजी कभी इसी उपवन में जगतारक प्रभु की वाणीसतत ज्वलित पौरुष के मग में नियति नहीं बाधा लाती। वर्तमान के गेह पधारे जब अतीत बनकर पाहुन, शिशु मराल तब क्यों न विवेकी हों अनुभव के मोती चुन?
वीरायतन-दर्शन
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