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राग-विराग एक सम जिनको, जिन्हें एक सम सुधा-गरल, शशि-सीकर, रवि-कर दोनों में जिनका हृदय अटल-अविचल, श्रम-संयम, समभाव-विभव से पूरित हैं जिनका जीवनहैं नमस्य ये मुनि 'समदर्शी' लो वन्दन कर अमित फल । कवि, तुम दृष्टि फिराकर देखो, पैर बढ़ाओ ठहर-ठहर, वीरायतन वंदना थल है, वन्द्य यहाँ के सब मुनिवर।
पूज्य दृष्ट चरणों में कवि, यदि समचित प्रणति और वंदन, तो फिर मानव हृदय छोड़ दे, क्यों अदृष्ट का आकर्षण ? कल तक जिनकी ममता करुणा अविरल जन-जन पर बरसीकरो आज उन रंभा-श्री को अपित तुम श्रद्धा-चिन्तन । अपने लिए सभी जीते हैं, तुम जगती के लिए जियो, महासती की सीख न भूलो सुधा बाँट कर गरल पियो।
प्रकृति यहाँ गंभीर हृदय से अनुक्षण वन्दन-स्वर भरती, बाल-विहग की मधुर काकली सतत खेद-पीड़ा हरती, तेज दूर की हवा यहाँ आ रुकती वन्दन चाह लिएवन्दन का अनुराग संवारे सजल जलद छूते धरती। कवि, कल्पना तुम्हारी नभगा वह भी अब नीचे आए। मिल कर जग के अभ्यन्तर से गुरुवर की महिमा गाए।
'वीरायतन' जागरण-युग की उर-प्रेरक रचना मनहर, त्याग खड़ा है स्वार्थ-व्यूह में निर्विकार निर्भय अन्तर, करुणा से नर-प्राण सरस है, द्वेष, स्नेह का अनुगामीशतक पंच-विंशति व्यतीत कर आया फिर ऐसा अवसर । अजब शौख गुरुवर का जादू मुखरित हुआ मौन कानन, हटी प्रसुप्ति, मिला मनु सुत को आत्म-विचिन्तन का साधन ।
--कुमुद विद्यालंकार
वीरायतन-दर्शन
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