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"प्रमत्त योगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसा।"
अप्रमत्त अर्थात् जागे हुए साधक के द्वारा कभी हिंसा हो भी जाए, तो वह केवल द्रव्य-हिंसा है। भाव हिंसा नहीं ।
किन्तु जो प्रमत्त है, अर्थात् मूधित है, वह बाहर में हिंसा न करता हुआ भी सतत भाव हिंसा करता रहता है।
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