Book Title: Sagar Nauka aur Navik
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 224
________________ द्वारा प्रजाहितरूप पुण्य कर्म ही किया, पाप कर्म नहीं क्योंकि इनके ये तत्कालीन निर्णय विश्व जनहित में थे । 'आइगराणं तत्राणं' के अनुसार तीर्थंकर धर्म की आदि करने वाले हैं, तीर्थ के कर्त्ता हैं, संस्थापक हैं । परन्तु, प्रश्न यह है कि वे किस धर्म के कर्त्ता हैं ? निश्चय-धर्म तो अनादि - अनन्त है । जिस युग में जो भी तीर्थंकर हुआ, उसने निश्चय-धर्म के रूप में एक ही बात कही-राग-द्वेष से मुक्त होना, निज स्वभाव में स्थित रहना, वीतराग भाव- समभाव में रमण करना धर्म है । अनन्त अनन्त अतीत काल में जो अनन्त तीर्थंकर हो चुके हैं, उनमें से किसी ने भी इसके विपरीत प्ररूपणा नहीं की और न अनन्त अनागत-काल में होनेवाला कोई तीर्थंकर इसके विरूद्ध कुछ कहेगा। किसी ने कभी भी यह नहीं कहा कि राग-द्वेष से मुक्ति होती है, विभाव-परिणति धर्म है क्योंकि निश्चय धर्म अनादिकाल से जिस रूप में चला आ रहा है, वही वर्तमान में है और वही भविष्य में रहेगा । वह तो आत्मा का निज स्वभाव है। उसमें कोई परिवर्तन करेगा भी क्या ? फिर तीर्थकर किस धर्म के कर्ता हैं ? वे नवी स्थापना क्या करते हैं? यदि वे पुराने सत्य का धर्म का ही उद्घोष करते हैं, तब वे कर्त्ता कैसे हुए ? वस्तुतः तीर्थंकर आत्मा के स्वरूप की, तत्त्वों के स्वरूप की, वीतराग-भाव की अन्तरंग साधना की कोई नयी स्थापना नहीं करते । अतः स्पष्ट है कि कोई भी तीर्थंकर निश्चय-धर्म का कर्त्ता नहीं होता और न हो ही सकता है । व्यवहारधर्म में, बाहर के आचार में, क्रिया काण्ड में युग के अनुसार जो परिवर्तन अपेक्षित होता है, तीर्थकर उस बाह्य आचार में परिवर्तन-परिवर्धन करता है। अतः वह व्यवहार-धर्म का कर्त्ता है। आचार्य जिनदास ने जो आगमों के व्याख्याता एक महान् आचार्य हुए हैं, उन्होंने सहस्राधिक वर्षे पूर्व उत्तराध्ययन-चूर्णि में कहा था- "बेशकालानुरूपं धर्मकथयन्ति तीर्थंकराः ।" तीर्थकर देशकाल के अनुरूप धर्म -- आचार का कथन करते हैं। अर्थात् व्यवहार धर्म एवं आचार की स्थापना करते हैं। देश और काल के अनुसार परिवर्तित होने वाला ये तो व्यवहार धर्म होता है, बाह्याचार होता है, निश्चय एवं अन्तरंग धर्म नहीं । भगवान् ऋषभदेव ने धार्मिक शासन-तंत्र के नियम भी निर्धारित किये। अचेल नग्नता आदि के रूप में वे कठोर थे। उनके बाद की परम्परा में आने वाले द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ ने सचेल-सवस्त्र आदि कोमल एवं व्यावहारिक विधान प्रस्तुत कर अपने युग में श्री ऋषभदेव द्वारा प्रचारित कठोर नियमों को अपदस्थ कर दिया। थोड़ेबहुत हेर-फेर के साथ धर्म - शासन का यह परिवर्तित रूप तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ तक चलता रहा । अब प्रश्न उठता है कि श्री अजितनाथ ने कठोर व्रतों को कोमल क्यों बनाया? स्पष्ट है कि एक समय की कठोर व्यवस्था भविष्य में सार्वजनिक रूप से अव्यावहारिक हो जाती है, अन्ततः वह दंभ का रूप ले लेती है। उसका मौलिक सही रूप रह नहीं पाता । लोक प्रतिष्ठा के भय से बाह्यावरण बना रहता है, पर अन्तर में संत्रासजन्य स्थिति उत्पन्न हो जाती है। धर्म डोंग एवं पाखण्ड में परिवर्तित हो जाता है और यह पाखण्ड, धर्म एवं समाज की पवित्रता एवं प्रामाणिकता को ले डूबता है। अतएव समयानुसार धर्म एवं समाज के शासकों के समक्ष कुछ ऐसे विकट प्रश्न उभर उठते हैं, जिनके समाधान हेतु परंपरागत नियमों में कुछ आवश्यक परिवर्तन करने पड़ते हैं । इसी समयोचित परिस्थिति को श्री अजितनाथ ने गंभीरता के साथ अनुभव किया एवं कठोर-चर्या को मृदु-चर्या में परिवर्तित करने का उचित निर्णय लिया । अगर वे सामाजिक एवं धार्मिक मर्यादाओं के पूर्वगत पक्ष से मुक्त न हुए होते और आवश्यक निर्णय न लिए होते, तो धर्म-संघ की स्थिति क्या होती ? यह इतिहास का एक ज्वलन्त प्रश्न बन गया होता। अतएव जीवन के हर क्षेत्र में युगानुकूल परिवर्तन आवश्यक होता है। एक लम्बे कालखण्ड के गुजर जाने के पश्चात् भगवान् महावीर का युग आता है। कोमल नियम भी अन्ततः शिथिलाचार एवं भ्रष्टाचार का रूप ले लेते हैं। अतः भगवान् महावीर फिर अपरिग्रह के चरम आदर्श अचेल अर्थात् नग्नता आदि के कठोर पथ पर चल पड़ते हैं। यह परिवर्तन आवश्यक था, अपेक्षित था। अतएव उन्होंने यह परिवर्तन बिना किसी पुरातन आदि की उलझन के सहज भाव से किया। इस परिवर्तन में पूर्व के तीर्थंकरों की अवज्ञा नहीं है। भगवान् पार्श्वनाथ या उनसे पहले के तीर्थंकरों का अपमान नहीं है । स्पष्ट है अपने समय में पूर्व परंपरा के तीर्थंकरों के निर्णय भी सही थे और अपने युग में भगवान् महावीर के भी शाश्वत सत्य के साथ व्यवहार-यथ के कुछ सामयिक सत्य भी होते हैं। जो परिवर्तित समय में अपनी अर्थवत्ता एवं गुणवत्ता खो देते हैं। फलतः उनमें परिवर्तन करना १९० सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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