Book Title: Sagar Nauka aur Navik
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 252
________________ उपर्युक्त निष्कर्ष के सम्बन्ध में एक बात विशेषतः ध्यान देने योग्य है। वह यह कि जान-बूझकर अन्याय की उपेक्षा करना, अन्याय का शरणागत होना, पाप है। परिस्थिति विशेष में या अनजाने में यदि कभी अन्यायी का आहार ले लिया जाए, तो वह भीष्म पितामह के समाधान की परिधि में नहीं आता। अन्याय-जन्य अशुद्धि का मूल तत्त्वतः मन में होता है, बाहर में नहीं। कुछ लोगों का विश्वास है कि धर्मात्मा, न्याय-निष्ठ, सदाचारी व्यक्ति के यहाँ का भोजन एकान्ततः चित्त शुद्धि का हेतु होता है, और दुराचारी के यहाँ का अशुद्धि का। इस सम्बन्ध में मेरा तर्क और है। यदि कोई साधक धर्म का, न्यायनीति का स्वयं के अन्तर्मन में संकल्प रखता है, तो वहाँ चित्तशुद्धि स्वतःसिद्ध है और वह स्वयं के विचार से है। उसका सम्बन्ध अन्न से नहीं है। यदि अन्न से हो तो फिर किसी भी उत्कृष्ट सदाचारी, न्याय-निष्ठ के हाथ का अन्न लेकर साधारण जनता को आध्यात्मिक गोलियों के रूप में खिला दें, ताकि जनता की सहज ही चित्त-द्धि हो जाए और अपराधर्मियों की मानसिक विकृतियाँ समाप्त हो जाएँ। पर क्या यह संभव है ? आहार शुद्धि के तीन चरण है, सर्वप्रथम आहार का मूल द्रव्य शुद्ध हो, दूसरा वह अन्याय से अजित न हो, और तीसरा, अन्याय के प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन से भी लिप्त न हो। अन्यायी का आहार न लेने की अर्थ इतना ही है कि समाज के मानस में उसके अन्याय को प्रतिष्ठा देने जैसी स्थिति न होने पाए। आहार शुद्धि का चतुर्थ चरण ध्यान में रखने जैसा है। शुद्ध आहार ग्रहण करने का उद्देश्य क्या है ! यदि आहार सत्कर्म करने की भावना से ग्रहण किया जाता है, तो वह श्रेयस्कर होता है। यह चतुर्थ चरण आहार शुद्धि का सर्वोत्कृष्ट शिखर है। कृपया इसे न भूलें। २१८ सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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