________________
भारतीय-संस्कृति में आहार-शुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। आहार शुद्धि का केवल शरीर-पर ही नहीं, अन्तर्मन पर भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। चित्त शुद्धि की साधना का यह प्रथम चरण है। "आहार शुद्धौ सत्त्वशुद्धि" का निर्घोष आज का ही नहीं, चिरन्तन है, युग-युगान्तर का है।
जो आहार अभक्ष्य है, मांस एवं मद्य:आदि के रूप में विहित है, वह तो निषिद्ध है ही। भारतीय चिन्तन इससे भी आगे बढ़कर एक और रहस्य का उद्घाटन करता है। वह यह कि आहार मूलतः द्रव्य रूप में भले कितना ही शुद्ध हो, उपादेय हो, परन्तु यदि वह अन्याय, अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न एवं प्रवंचना से उपाजित है, तो वह भी अशुद्ध है, अभक्ष्य है। वह भी तन-मन को दूषित करनेवाला होता है। शास्त्रकारों ने इस प्रकार के दूषित आहार की भी स्पष्ट रूप से विगर्हणा की है।
आहार शद्धि का एक तृतीय चरण और भी है, वह भी कम महत्त्व का नहीं है। आहार द्रव्य से शुद्ध है, स्वयं के द्वारा अन्याय एवं अत्याचार के द्वारा भी उपाजित नहीं है। परन्तु, यदि वह किसी अन्य अन्यायी एवं अत्याचारी से प्राप्त है, तो वह भी निन्दित है । वह भी व्यक्ति की मानसिक चेतना को मलिन एवं दूषित करनेवाला होता है। वह भी बौद्धिक भ्रष्टता का जनक है। अतः उसके कारण मानव की सत्यासत्य की निर्णायक शक्ति समाप्त हो जाती है। जीवन का तेज सर्वथा क्षीण हो जाता है।
आहार शुद्धि के उक्त तृतीय रूप के सन्दर्भ में महाभारत युग की एक पुरातन गाथा है। महाभारत का लोमहर्षक भीषण युद्ध समाप्त हो गया था। बाणों की शय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह उपदेश दे रहे थे। धर्म-ज्ञान की बहुत ऊँची-ऊँची गंभीर बातें बता रहे थे। इसी बीच में महारानी द्रौपदी को हंसी आ गयी।
"बेटी, तू हंसी क्यों ?"--पितामह ने पूछा। "मुझ से भूल हो गयी। पितामह, मुझे क्षमा करें।" द्रौपदी ने हाथ जोड़कर नम्रता से उत्तर दिया।
"बेटी, तेरी हंसी अकारण नहीं है। द्रौपदी और वह बिना कारण व्यर्थ ही उपदेश के बीच हंस पड़े, यह तीन काल में भी संभव नहीं हो सकता। अतः बिना किसी संकोच एवं झिझक के बता, क्यों हंसी?"
पितामह, बड़ी गैर जिम्मेदारी की-सी-बात है। फिर भी आपका आग्रह है, आप आज्ञा देते हैं, तो बताती हूँ। “आप उपदेश दे रहे थे, तो मुझे इस बीच खयाल आया कि आज तो आप धर्म की इतनी उत्तम गंभीर व्याख्या कर रहे हैं, जिसकी तुलना अन्यत्र कहीं हो नहीं सकती। परन्तु, कौरवों की सभा में जब दुःशासन मुझे नंगी करने का दुःसाहस कर रहा था, उस समय आपका यह धर्म-ज्ञान कहाँ चला गया था ? मन में उक्त बात के आते ही मुझे बरबस हंसी छूट पड़ी। कृपया मुझे क्षमा करें, इस भूल के लिए। व्यर्थ ही मुझ से आपका अनादर हो
गया।"
भीष्म बोले-"इसमें क्षमा, जैसी कोई बात नहीं है, बेटी! तेरा कहना ठीक ही है। मुझे धर्म-ज्ञान तो उस समय भी था, परन्तु दुर्योधन का अन्यायपूर्ण अन्न खाने से मेरी बुद्धि मलिन हो गयी थी। इस कारण मैं सत्य के समर्थन में दुर्बल हो गया था। किन्तु, अब अर्जुन के बाणों से मेरे शरीर में से उस दूषित अन्न से बना सब रक्त निकल गया है, इसलिए अब बुद्धि शुद्ध हो जाने के फलस्वरूप धर्म की सही व्याख्या कर रहा हूँ।"
भीष्म पितामह के उक्त लाक्षणिक उत्तर एवं समाधान में सत्य का यह स्वर स्पष्टतः अनगंजित है कि अन्याय, अन्याय है, अत्याचार, अत्याचार है, फिर वह कहीं भी हो, किसी की भी ओर से हो, त्याज्य है। अन्यायरत दुराचारी व्यक्ति का भोजन सिर झुकाकर आये दिन यों ही लेते रहना, अन्याय का परोक्ष रूप में स्पष्ट समर्थन है। स्वयं के द्वारा किए गए अन्याय से भी दूसरे व्यक्ति के द्वारा किये गये अन्याय को परोक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन देना कभी-कभी अधिक भयंकर हो जाता है।
जीवन-शुद्धि का द्वार
२१७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org