Book Title: Sagar Nauka aur Navik
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 255
________________ जीवन का अर्थ हैं कर्म की धारा का सतत बहते रहना। यह वह धारा है, जो एक क्षण के लिए भी कहीं न रुके । निरन्तर बहती जाए, बढ़ती जाए, एक के बाद एक मंजिलों को पार करती जाए। यदि यह कर्म-शक्ति की धारा कभी कहीं रुक जाती है, तो जानते हो, उस समय क्या होता है ? तब वह जीवन, जीवन नहीं रहता, जिन्दगी जिन्दगी नहीं रहती । कर्म-शक्ति का रुक जाना एक प्रकार से बाहर में जीवन रहते हुए भी अन्दर में जीवन का रुक ना है। और इसका अर्थ है मृत्यु । यह मन की मृत्यु तन की मृत्यु से भी भयंकर है। जीते हुए भी मुर्दे की तरह सड़ना है, गलना है। 1 गति ही जीवन है और जीवन ही गति हैं और स्थिति क्या है ? स्थिति है मृत्यु जब भी कोई व्यक्ति आलसी एवं निरुद्यमी होकर, आराम की तलाश में निष्क्रियता की जड़ शय्या पर, यह सोचकर लमलेट हो जाता है। कि "बहुत कुछ कर लिया। अब क्या करना है? सारी जिन्दगी क्या इसी तरह घुड़दौड़ लगी रहेगी ? अब तो शान्ति से आराम करना चाहिए।" समझ लो यह शान्ति नहीं, जीवन की ही, ओम् शान्ति है । ओम् शान्ति, अर्थात् समाप्ति । कर्म का तेज समाप्त होते ही आदमी भी समाप्त हो जाता है। अग्निदेव का तेज समाप्त हुआ कि वह भस्म का ढेर बना । यथा-प्रसंग मोड़ बदलते रहिए : हर कर्म का एक समय होता है, एक परिस्थिति होती है । अतः समय एवं परिस्थिति के अनुसार कर्म को मोड़ देते रहना चाहिए। धारा को यथाप्रसंग मोड़ देना बुरा नहीं है । कर्म करने का यह अर्थ नहीं कि अंधे हाथी की तरह निर्विवेक एक ही दिशा में दौड़ते चले जाएँ । मोड़ का बदलना अलग बात है और कर्म शून्य होकर अंधेरे कोने में बैठ जाना अलग बात है । कर्म के एक रूप से कुछ दूर चलकर अरुचि या श्रान्ति हो, तो कर्म का दूसरा रूप पकड़ो आवश्यकता के अनुसार कर्म का रूप बदला जा सकता है, देशकालानुसार उसे उचित मोड़ दिया जा सकता है, किन्तु कर्म-शून्य होकर शव की भांति मरघट में पड़ा नहीं जाता है । शव भी कब तक पड़ा रह सकता है ? जल्दी ही जमीन में गाड़ कर या अग्नि में जलाकर ठिकाने लगा दिया जाता है । कर्म - शून्य व्यक्ति भी आराम क्या करेगा ? प्रकृति देवी जल्दी ही उसे ठिकाने लगा देती है । कर्म नहीं करना है तो चलो, यहाँ पड़े रहकर क्या करोगे ? 1 जीवन गंगा की धारा गर्मी हो सर्दी हो, धूप हो, छाया हो, दिन हो, रात हो, गंगा को हर क्षण बहना है । निरन्तर बहते रहने में ही गंगा की दिव्यता है, स्वच्छता है, निर्मलता है। यदि गंगा के मूल प्रवाह से भटक कर कोई जलधारा पास के किसी गर्त में, गड्ढे में गिर जाए, तो वह कुछ ही दिनों में सड़ने लगेगी । कीड़े पड़ जाएँगे उसमें, दुर्गन्ध आने लगेगी उसमें से । रोग फैलानेवाले मच्छरों का तथा अन्य जहरीले कीटाणुओं का केन्द्र बन जाएगा, वह एक दिन का पवित्र जल । और तब वह जीवन नहीं, मृत्यु बाँटेगा जनता में । प्रवाह ठहरा, कि सड़ा। सड़ा कि मरा । गंगा में गोता लगानेवाले गंगा -भक्त भी उक्त सड़ते गर्त के पास से नाक बन्द कर धूं-धूं करते ही निकलते है । वह दुर्गन्ध असह्य हो जाती है । जीवन भी कर्म की गंगा है। यह अवरुद्ध हुई कि तत्काल सड़ने लगेगी। यह स्वच्छ तभी तक है, जब तक कि इसमें प्रवाह है, बहाव है। छल-छल एवं कल-कल के मधुर नाद से गूंजती हुई जब तक यह बहती रहती है, तभी तक स्वच्छ है । अन्यथा सड़ती- सड़ती एक दिन यह समाप्त हो जाएगी, मृत्यु की गोद में समा जाएगी । अतः न गर्मी की चिन्ता करो, न सर्दी की, न वर्षों की यह तो प्रकृति का क्रम है, चलता रहेगा। तुम तो स्वीकृत कर्म के पथ पर निरन्तर चलते रहो, चलते रहो। जो चलता है, वही ब्रह्मर्षि महीदास के शब्दों में "मधु विन्दति - " मधु पाता है । समुद्र देखा है कभी ? : आपने कभी विशाल जलस्रोत, सरोवर, झील या निर्झर देखे हैं ? कितना सुन्दर दृश्य होता है वहाँ का प्रातःकाल सूर्य की सुनहली किरणें झलमलाती है जल पर तो लगता है धरती पर स्वर्ग उत्तर आया है । बहनेवाली धाराएँ एक गति से बह रही हैं, तरंग-पर-तरंग उठ रही हैं, संगीत की एक मधुर ध्वनि- सी गुंजित है । कितने ही जरूरी काम हैं, फिर भी वहाँ से हटने का मन नहीं होता । बस, घंटों ही तट पर खड़े-के-खड़े रह जाते हैं, एक विलक्षण आनन्द में आत्मविभोर ! ज्योतिर्मय कर्म-योग Jain Education International For Private & Personal Use Only २२१ www.jainelibrary.org.

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