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मण्ड अर्थात खाली दाल-भात के लिए सिर मुंडानेवाले भिक्षु । वे ओदनमुण्ड भिक्षु ही थे, जो संकट पड़ने पर अंग, बंग, कलिंग आदि प्रदेशों से, जहाँ एक दिन भगवान् महावीर और उनके हजारों भिक्षु धर्म-विजय का जयनाद गुंजाते हुए घूम रहे थे, दुम दबाकर भाग खड़े हुए थे। तेजोहीन निर्जीव लोगों के लिए भागने के सिवा दूसरा मार्ग ही क्या हो सकता है?
क्षारं जलं कापुरुषाः पिबन्ति : ब्रज प्रदेश में कंस का अत्याचार चरम सीमा पर था। वह यादव होकर भी यादवों का घोर शत्र था। चारों तरफ मृत्यु नाच रही थी। यादव और अन्य प्रजा-जन गुलामों का-सा जघन्य जीवन जी रहे थे। चरवाहों की-सी जिन्दगी। कृष्ण ने कंस को मल्लयुद्ध में समाप्त कर दिया था। अब कंस के श्वसुर मगधाधिपति जरासन्ध के आक्रमण के आतंक से व्रज में रहना दूभर हो गया सब को। पर, कोई भी जन्मभूमि छोड़ने के लिए तैयार नहीं। श्रीकृष्ण ने कहा, "इस तरह जन्मभूमि के नाम पर असुरक्षित व्रज प्रदेश से चिपटे रहने में क्या लाभ है। ठीक है हजारों पीढ़ियाँ हमारी यहाँ गुजरी हैं, पर अनादिकाल से तो हम यहाँ नहीं हैं। एक दिन कहीं से आकर ही यहाँ डेरा डाला गया था। अब चलो, अन्यत्र कहीं सुरक्षित स्थान में डेरा डालेंगे। अगर जीवन में कुछ ज्योति है, प्राणों में कुछ दम है, भुजाओं में कुछ बल-विक्रम है, तो अन्यत्र यहाँ से भी अच्छा एक नया साम्राज्य स्थापित करेंगे। कर्मठ कर्मवीर लोगों को काम करने के लिए विराट भूमि का खुला मैदान पड़ा है। ऐसे लोग कहीं भी, शून्य में भी जाकर नव निर्माण कर सकते हैं। और, ऐसे लोगों को जीवनविकास के पथ पर कुछ-न-कुछ नया निर्माण करना ही चाहिए। मरघिल्ले साहसहीन लोग ही चूहों की तरह बिल में घुसे हुए पुरानी प्रतिबद्धताओं के राग आलापा करते हैं।
__ श्री कृष्ण बिलकुल ठीक कहते हैं। ये स्वदेश और विदेश के राग ही व्यर्थ हैं। साहसी के लिए सर्वत्र स्वदेश ही है, विदेश कहीं है ही नहीं। सिंह जिस वन में भी जाएगा, उसी वन का राजा मृगराज कहलायेगा। सिंह को वन का राजा किसने बनाया? किसने उसका राज्याभिषेक किया? किसने उसे कहा कि लो यह राजमुकुट पहनो और बन जाओ राजा? सिंह ने जो यह राजपद पाया है, अपने बल-विक्रम से पाया है--
"मगेन्द्रस्य मगेन्द्रत्वं, वितीर्ण केन कानने ? विक्रमाजित-सत्वस्य, स्वयमेव मृगेन्द्र ता॥"
किसी के पिता ने सुविधा के लिए अपने घर के आंगन में ही एक कुंआ खुदवाया। दुर्भाग्य से पानी खारा निकला। पिता चल बसे। जीते रहते तो संभव है कोई अन्य नया उपक्रम करते। अब यह दायित्व पुत्रों पर आया। परन्तु, पुत्र आलसी। नया कुछ यत्न नहीं किया। कँए का वही खारा पानी पीते रहे, बीमार पड़ते रहे, घर के बाल-बच्चे और महिलाजन सब परेशान होते रहे। गाँव से कुछ दूर मीठे पानी के कुँएँ थे। पर कौन वहाँ जाए? लोग कहते भी कि अरे खारा पानी क्यों पीते हो? जरा मेहनत करो। दूर के कुँए से मीठा पानी ले आया करो। इस पर आलसी बेटों का एक तर्क होता था, जिसमें पितृ-भक्ति की दुहाई दी जाती थी कि "हमारे बाप का खुदवाया हुआ कुंआ है। खारा है तो क्या है ? यदि हम ही इसका जल नहीं पीएँगे, तो दूसरा कौन पिएगा? कुछ भी हो, दूसरे कुंओं का नहीं; अपने बाप के कुंए का ही खारा जल पिएँगे।" क्या यह सचमुच में पितृ-भक्ति है ? इसी भाव को स्पष्ट करते हुए एक कवि ने देश, जाति, कुल आदि की प्रतिबद्धता वाले लोगों को कभी फटकारा था--
“यस्यास्ति सर्वत्र गतिः स कस्मात् स्वदेश-रागेण हि पाति खेदम् । तातस्य कूपोऽयमिति ब्रुवाणाः, क्षारं जलं कापुरुषाः पिबन्ति ॥"
आप जानते हैं, श्री कृष्ण के द्वारा व्रज परित्याग का इतिहास क्या है ? ब्रज छोड़ कर यादवों ने क्या किया, क्या पाया। श्री कृष्ण के नेतृत्व में यादव चलते-चलते पश्चिम समुद्र के तट पर सौराष्ट्र में पहुंच गए। कर्मठ और साहसी यादव जाति ने एक विशाल यादव साम्राज्य का निर्माण किया, सोने की द्वारका नगरी बसाई।
ज्योतिर्मय कर्म-योग
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