Book Title: Sagar Nauka aur Navik
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 234
________________ का अतिक्रमण कर गया था, वहीं दूसरी ओर यज्ञादि कर्म-काण्डों में निरीह पशुओं की बलि दी जा रही थी और तत्कालीन विवेकहीन पौरोहित्यवाद की रूढ़िवादी विचाराधारा इस नृशंस कृत्य को जायज करार दे रही थी। इस अवस्था पर विचार करने के पश्चात् भगवान महावीर के जन्म और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की ओर जब हम दृष्टिपात करते हैं, तो अनायास ही श्रमण-संस्कृति के प्रवक्ता-पुरुष महावीर अवतार पद-वाच्य सारे महापुरुषों में अन्यतम लगने लगते हैं। . अनेकान्तवादी चिन्तन को व्यावहारिक रूप देने का कार्य भगवान् महावीर ने इसीलिए किया था कि मतभेदों के संघर्षों में समन्वय का सत्य एक है। उन्होंने देखा कि यात्रा के प्रस्थान-बिन्दु एक ही हैं। कोई भी मार्ग हेय नहीं है, यदि विवेकमलक प्रामाणिकता के साथ स्व-पर-हित में उन्हें उतारा जाए। दिव्य जीवन को प्राप्त करने के लिए इस प्रकार का वर्ग-संघर्षवादी विवाद महत्त्वहीन है। क्योंकि अभेद पर आधारित आत्म-स्वरूप की दृष्टि में भेद-बुद्धि का अंकुरित होते रहना विकार का कारण है। इसीलिए उन्होंने धर्मसंघ को अनन्त धर्मात्मक सत्य के सभी पहलुओं को तत्त्व-जिज्ञासा के प्रति सहिष्णु और विनयावनत हो कर निरंतर साधना-पथ पर अग्रसर होते रहने का आदेश दिया। सर्वभत-हितेरत भगवान महावीर ने जब निरीह पशुओं का बलिदान धर्म के नाम पर होते देखा तो, वे करुणार्द्र हो उठे। उन्होंने स्पष्ट देखा कि अगर हिंसा का यह क्रम चलता रहा, तो पृथ्वी पर जीवों के पारस्परिक स्नेह-सिक्त मैत्री सम्बन्ध समाप्त हो जायेंगे। सृष्टि के लीलाचक्र से दैवीय गणों के समाप्त होते ही विकास के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जायेंगे। अतएव उन्होंने प्राणिमात्र के प्रति निजभाव रखने का उपदेश दिया और अहिंसा को ही सबसे बड़ा धर्म बताया। विकास की इस सर्व-मंगल यात्रा पर अग्रसर होने के इच्छुक साधकों को भगवान् महावीर ने इसीलिए सबके प्रति विनम्र, उदार एवं सहयोगी रहने का संदेश प्रसारित किया और इसीलिए उन्होंने अहिंसा के विधि-पक्ष सेवा-भावना को प्रमुखता दी। क्योंकि सेवाभावी मन ही विनम्र, उदार और परस्परोपग्रही हो सकता है। सेवा का उदात्त संकल्प ही मनुष्य की मानवता को प्रांजल स्वरूप प्रदान करता है, चिन्तन में सर्वभूतहितं का व्यापक भाव सेवा-भावना से ही उत्पन्न होता है। चिन्तन के इसी बिन्दु पर जीवन की बहु-आयामी ऋजुता-गंगा के निर्मल जल में पूर्णिमा के चाँद की तरह झलक उठती है। सेवाव्रती मन कल्मष रहित होता है और कल्मष रहित मन में ही सम्यक्-ज्ञान का निर्मल प्रकाश फैलता है। __ आमतौर पर सामान्य जन पूजा, उपासना अथवा भक्ति-प्रधान क्रिया-काण्ड को ही धर्म समझते हैं। किसी एक भगवत्स्वरूप महान् व्यक्ति विशेष के श्रीचरणों में श्रद्धांजलि अर्पण करने में ही उनके धर्म और कर्म की इतिश्री है। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। यह तो प्रारम्भिक क्रिया है। बुद्धि-शुद्धि और चित्त-शुद्धि का एक बहुत ही लघु साधन है। सद्धर्म के विराट् स्वरूप को समझने की दिशा में उन्मुख होने की यह पहली सीढ़ी तो है, पर यही सब-कुछ नहीं है। इस संदर्भ में गणधर इन्द्रभूति गौतम और भगवान् महावीर के मध्य एक बड़ा ही सुन्दर सत्यबोधक धर्म-संवाद हुआ था। विश्वात्मा की विश्व-चेतना के उदात्त स्वरूप के बारे में प्रश्न करते हुए गणधर गौतम ने पूछा--"भन्ते ! एक व्यक्ति आपके श्रीचरणों में विनयावनत है। आपकी पूजा, अर्चना, भक्ति और सेवा में ही अपना कल्याण समझता है। और दूसरा व्यक्ति आपका भक्त तो है, पर दीन-दुःखी, निर्बल, प्रताड़ित व्यक्तियों की सेवा-शुश्रुषा में उसका अधिक समय गुजरता है, आपकी भक्ति-पूजा के लिए समय नहीं निकाल पाता। इन दोनों में कौन धन्य है, कौन श्रेष्ठ है? आपकी शुभाशंसा इन दोनों में किसे अधिक मिलती है?" अन्तेवासी गौतम की जिज्ञासा का समाधान करते हुए श्रमण महावीर ने पूजा के सत्य का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा--"गौतम! मेरी पूजा, अर्चना की अपेक्षा जो दीन, दुःखी, निर्बल, रोगी और असहाय जनों की सेवा करता है, वह अधिक महान् है। उसका जीवन धन्य है। वही भक्त भक्ति के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ है गौतम-- "गोयमा ! जे गिलाणं पडियरई से धन्ने।" अनन्त करुणामूर्ति भगवान् महावीर का यह संदेश सूचित करता है कि सेवा ही मानव जीवन का उच्चतम २०० सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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