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“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः" जहाँ नारियों की पूजा होती है, देवता वहीं वास करते हैं। यह एक वह पुरातन सांस्कृतिक सूत्र है, जिसमें पुण्यशीला नारियों के प्रति गहरी हार्दिक एवं पूज्य श्रद्धा भावना व्यक्त की गई है। नारी देश और समाज की ऐसी दिव्य शक्ति है, जो पुरुषवर्ग में अपने नानाविध रूपों से क्षमता व सहनशीलता का भाव जगाती है। और स्वयं जागृत रहकर निरन्तर अपने प्राप्तव्य ध्येय की ओर जाने की प्रेरणा देती है। नारियों के आदर्श बलिदानों से इस देश का इतिहास भरा पड़ा है। उनकी कठोर तपस्या, प्रकृतिसिद्ध सेवा, भावनाशील संवेदना, असीम त्याग और अतुलनीय साहस की इतिहास गाथाएँ जन-जीवन को कर्तव्यनिष्ठ व कर्मठ बनाती हैं। और उनका मातृ स्वरूप ऐसा है कि जिसमें मानवता की ऊँचाइयों का दिव्य-दर्शन होता है । नारियाँ किसी भी देश की महान् थाती होती हैं। उनका ऋण इस धरती पर कुछ ऐसा है, जिसे किसी भी कीमत में चुकाया नहीं जा सकता। चुकाने की इच्छा भी अगर किसी के मन में है, तो वह गलत है, क्योंकि नारियों का ऋण, ऋण नहीं है। वह तो एक प्रकार का नैतिक प्रेमोपहार है, जिसे श्रद्धापूर्वक हृदय से ग्रहण कर जीवन का मंगल किया जा सकता है, उत्थान के लिए कुछ सीखा जा सकता है। जो भी कुछ उच्चतर है, परिवार एवं समाज की दृष्टि से नारी अप्रतिहत आदर्श है, उसकी उपलब्धि के लिए। सृष्टि के प्रारंभ से ही नारीजाति का जो ऐतिहासिक योगदान मानव-जीवन के हर क्षेत्र में मिलता रहा है, वह मात्र प्रशंसा के योग्य ही नहीं, वरन् प्रेरणा की उर्वरा भूमि है, जिसमें बिना किसी आग्रह-दुराग्रह के सहज सुखस्पर्श मृदुलता के साथ सतत कर्मशील रहने का अमृतसंदेश अनुगुञ्जित रहता है। अगर खुली दृष्टि से देखा जाए, तो व्यक्ति और समाज के सर्वांगीण विकास में महिलाओं का योगदान बहुत बड़ा है। वे एक ऐसे उत्तरदायित्व का पालन करती हैं, जिसे उतनी मौन निष्ठा के साथ कर पाना पुरुषवर्ग के लिए असंभव नहीं, तो कठिन अवश्य है। पुरुष, समाज का मस्तिष्क है, तो नारी हृदय है। हृदय का योगदान मिलने पर मस्तिष्क का ताप शान्त होता है और उसे कर्म के लिए दिशा मिलती है।
लाखों-लाख वर्षों से निरन्तर प्रवाहित हो रहे इतिहास की ओर झाँकने पर यह पता चलता है कि परिवार, समाज और धर्म के क्षेत्र में नारियों ने अपनी महती भूमिका निभाई है। वस्तुतः नारी नारी के रूप में कोई एक इकाई नहीं हैं। वह गुणधर्म की दृष्टि से नानारूपा है, अनेकरूपा है, कहीं वह मधुस्राविणी लोरी सुनाती हुई ममतामयी माँ है, तो कहीं सहज स्नेह बिखेरती भगिनी है। कहीं वह श्रद्धास्निग्ध कन्या है, तो कहीं वह तन-मन से समर्पित ऐसी भावप्रवण प्रिया है, जिसे पुरुष की सहधर्मिणी होने का गौरव प्राप्त है।
धर्म-शास्त्र के अध्येताओं को यह पता है कि भगवान महावीर के काल में हजारों की संख्या में महिलाएँ भिक्षुणी हो गयी थीं। उन्होंने जीवन के सभी प्राप्त सुखों का परित्याग कर दिया था। वैदिक-काल की गार्गी और मैत्रेयी के उज्ज्वल उदाहरण इतिहास-प्रसिद्ध हैं।
भारतीय वाङ्मय के अभ्यासी सभी जनों को यह पता है कि वाणी भी सरस्वती के रूप में स्त्री का ही एक रूप है, जिसके कारण धर्म और समाज के कण-कण में चिदानन्द-बोध का माधुर्य समाया है। सरस्वती ज्ञान की देवी है, चेतना की ऊर्जा है, यदि मानव ज्ञान-चेतना से शून्य हो जाए, तो फिर जड़ में और उसमें क्या अन्तर रह जाएगा? तब नर एक प्रकार से नराकृति में मक पश ही तो होगा। और क्या? और चेतनाशील सजग नारी पशत्व नहीं, ज्ञान-चेतना से युक्त देवत्व की प्रज्वलित ज्योति है। अत: उक्त सर्वशक्ला सरस्वती का स्वरूप भारतीय मनीषा ने नारी के रूप में ही चित्रित किया है।
___ शक्ति क्या है ? जिसके बिना मानव पशु है, तेजहीन है। आचार्य शंकर की भाषा में शिव भी बिना शक्ति के शव है, वह एक साधारण स्पन्दन करने की भी क्षमता नहीं रखता। और, इस शक्ति को भी दुर्गा, भवानी, चक्रेश्वरी, पद्मावती आदि नामों में स्त्रीरूप ही मिला है। _ और एक है, सम्पत्ति । इसके बिना भी मानव समाज की जीवन-यात्रा सुखद नहीं रहती है, दरिद्रता से बढ़कर कोई पाप नहीं है, यह हमारे चिर अतीत की अनुभुत अनुश्रुति है, और यह दरिद्रता दूर होती है, सम्पत्ति की, लक्ष्मी की वरद कृपा से । और यह कमलासना लक्ष्मी भी एक दिव्य नारी का ही तो अभिराम रूप है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि वे नारियाँ ही हैं, जिनके कारण मानव-सृष्टि के भीतर अहिंसा, करुणा एवं ममता की भावना पल्लवित, पुष्पित एवं फलित हुई हैं। जहाँ भी कहीं विरोधी के प्रति भी जो क्षमा भाव दिखता है, समझना चाहिए कि वहाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी-न-किसी रूप में सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति नारी का महान् क्षमा-संस्कार, बीज-रूप में छिपा हुआ है। साहित्य, कला और शिल्प के विविध रूपों में भी नारी का सहज कोमल संवेग समाया हुआ है। अमुक रूप में
मानवता की मंगलमूर्ति : सजग नारी
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