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इन सब की जननी नारी ही है। उसी ने संसार को कल्याण भावना दी है। स्नेह-सिग्ध गोद में उछालते एवं पालने में झुलाते हुए मानव शिशु को मानवता का प्रथम पाठ मातृ-स्वरूपा नारी ने ही पढ़ाया है। जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, नारी सब जगह अपनी धीर-गंभीर बुद्धि का परिचय देती है। पुरुष शिलाखण्ड की तरह कठोर हो सकता है, पर नारी अपने कलकल निनादिनी स्वच्छ सलिला सरिता के स्वभाव का त्याग नहीं कर सकती। वह हर किसी की पीड़ा में सहभागिनी बन जाना चाहती है। वह हर किसी के दुःख-दर्द को मिटा देना चाहती है। भगवान महावीर के संघ में जहाँ चौदह हजार साधु थे, वहीं साध्वियों की संख्या छत्तीस हजार थी। संख्या की दृष्टि से साधना-क्षेत्र में वे उस काल में भी पुरुष-वर्ग से अधिक थीं। पुरातन काल से ही भगवान् की दिव्य-वाणी के अमृत-रस का पान सबसे ज्यादा उन बहनों ने ही किया है, यह जैन इतिहास पर से सूर्यवत् स्पष्ट है।
जिन्हें पौराणिक मान्यताओं के आधार पर सामाजिक दृष्टि से पिछड़ा कहा जाता रहा है। और, जिनका हम आज भी अज्ञान और अन्धकार में रहनेवाले प्राणिविशेष के रूप में उपहास करते जा रहे हैं। और, वे रही भी हैं इस स्थिति में कभी, परन्तु ज्यों ही उन्हें प्रकाश मिला, वे सब-कुछ मोह-माया और प्राप्त सुखोपभोग त्यागकर लोकमंगल की राह पर चली आयीं। जिनका सुन्दर शरीर फूल के समान सुकुमार था, और जो हवा के तप्त झोंके से भी मुरझा सकता था, वे पुष्पशय्यारूढ़ गृहदेवियाँ भिक्षुणी के रूप में झुलसा देनेवाली भीषण गर्मी और कड़कड़ाती देहचीरती सर्दी के दिनों में भी महाश्रमण महावीर एवं तथागत बुद्ध का मंगलमय संदेश घर-घर पहुँचाती थीं। जिनके हाथों ने एकमात्र देना-ही-देना जाना था, वे ही राजरानियाँ अहंकार-मुक्त होकर अपनी प्रजा के सामने, यहाँ तक कि झोपड़ियों में भी भिक्षा के लिए घूमती थीं और राजप्रासादों से लेकर पर्णकुटीरों तक सबको समान भाव से अहिंसा एवं करुणा के आत्मौपम्य धर्म-दर्शन का अमृत बांटती फिरती थीं।
इससे यह सत्य जाहिर होता है कि जीवन के विविध क्षेत्रों में नारी-जाति का संकल्प और कर्म बहुत ही महान रहा है। त्याग का जितना बड़ा आदर्श नारी ने उपस्थित किया है, वैसा अन्य वर्ग में विरल ही देखा गया है। किंचित् भी मुख म्लान किये बिना धैर्य के साथ जितना कष्ट वह सह लेती है, अन्यत्र कहाँ है वह आदर्श सहिष्णुता, क्षमता, धैर्य, गांभीर्य एवं शक्ति ।
हमारा यह देश भारत, जिसे महादेश भी कहा जाता है, यहाँ गृहस्वामिनी स्त्री जीवन के आदर्श का आरम्भ और अन्त मातृत्व में ही होता है। वह मातृत्व, जो वक्ष में दुग्धामृत, हृदय में स्नेहामृत और करकमलों में कर्मामृत लिए मानवजाति को प्रारम्भ से पोषण देती है, और धीरे-धीरे विकास के पथ पर उसे अग्रसर करती है । स्त्री शब्द के उच्चारण मात्र से भारतीयों के मन में विकसित एवं उदारमना मातृत्व का स्मरण हो आता है। "स्त्री" शब्द का अर्थ ही विस्तार है। अतः वह संकुचित नहीं, विस्तृत है। वह बिन्दु नहीं, धारा है। संस्कार-हीनता के कारण घटित होनेवाले कुछ अपवादों को छोड़ दीजिए, शेष जो है वह उदात्त है, आदर्श है । जिन नारियों के जीवन में उदात्त गुणों का विकास हुआ है, उनका मन, वचन, कर्म सब मातृमय हो जाता है। वे विश्व के सभी प्राणियों को स्नेह की ममतामयी दृष्टि से देखती हैं। उनकी आंखों में कहीं भी घणा-द्वेषमूलक तिरस्कार नहीं रहता है। उनके ओठों पर हर क्षण एक सर्वमंगल मुस्कान बिच्छुरित होती रहती है, जो जीवन में आनन्द की भावधारा का संचार करती है। हिन्दुओं के यहाँ इसीलिए एक यग में स्त्री को ईश्वर रूप में भी सम्मानजनक स्वीकृति मिली है। यह वह दिव्य माता है, जिसे लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा और अन्य कितने ही उदात्त नामों से लोग स्मरण करते हैं। आचार्य शंकर जैसे अनेक शास्त्रकारों का कहना है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है, पर माता कुमाता नहीं हो सकती। अगर मैं प्रसंगोचित यह भी कहूँ कि मानव-संसार में जो कुछ शुभ दिखाई पड़ता है वह एक प्रकार से वात्सल्यमूर्ति माँ के वात्सल्य भाव का ही परिणाम है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। क्योंकि उसी की ममता, स्नेह एवं वात्सल्य की सुखद छाया में मानव की जीवन-यात्रा का सूत्रपात हुआ है।
नारी-जाति के पुरातन इतिहास को देखने पर ऐसा लगता है कि नारी का जीवन एक बहुत ही ऊँचा आदर्श जीवन रहा है। जब हम उसे स्मृति में लाते हैं, तो हमारा मन-मस्तिष्क सहसा श्रद्धा से आप्लावित हो जाता है। हम उनके प्रति सहज आदर भाव से तरंगित हो उठते हैं।
किन्तु, यह एक दुखद संयोग है कि इसी मिट्टी में जहाँ नारी इतनी महान् महत्ता के पद पर प्रतिष्ठित रही है, उसकी स्वर्णिम छवि धूमिल हो रही है। उसके प्राक्तन सुन्दर और सात्विक स्वरूप को भौतिकता की मर्यादाहीन दौड़ धूलि धूसरित कर रही है। अत: आज समाज में इधर जो गड़बड़ी फैली हुई है, संत्रास का वातावरण बन रहा
, सरस्वती, देणी युग में स्त्री कोइरहती है, जो जीवनमुलक तिरस्कार
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सागर, नौका और नाविक
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