Book Title: Sagar Nauka aur Navik
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 233
________________ यह शस्यश्यामल वसुन्धरा जिसे पा कर कृतार्थ हुई थी, जिसकी आभा से वैशाली का राजमहल जगमगा उठा था, अमरावती को भी मात करने वाले ऐश्वर्य के बीच जिस राजकुमार का लालन-पालन हुआ था, वही राजकुमार वर्धमान सत्य की खोज में समस्त सुख-साधनों का परित्याग कर एक दिन निकल पड़े। राजकुमार को गृह त्याग कर सत्य के अन्वेषणार्थ जाते देख लोग मूर्तिवत् स्तब्ध हो कर खड़े रह गये थे, वैशाली की सारी जनता शोकाकुल हो गयी थी । अन्ततः करुणामूर्ति राजकुमार वर्धमान साधना के कठोर मार्ग पर चल पड़े । दीर्घ अवधि तक अनवरत साधना करने के पश्चात् उन्होंने आत्म स्वरूप का सम्यक् दर्शन किया और उनकी दिव्य ज्ञान ज्योति से दिग् दिगन्त प्रकाशमान हो उठा। अनन्त ज्ञान की उपलब्धि के उपरान्त भगवान् ने दुःख से पीड़ित विश्व के विशाल प्राणि-समुदाय को देखा और करुणा से भर उठे। हाहाकार करते दिग्भ्रमित मानवों के समूह ने भगवान् की दिव्य करुणामूर्ति का दर्शन किया और परित्राण के लिए प्रभु के श्रीचरणों में नत हो गये। भगवान् ने देखा, सारा विश्व राग-द्वेष की अग्नि में झुलस रहा है। पथ-निर्देशन के अभाव में प्राणियों का समूह क्षोभ और पीड़ा से जर्जर एवं क्लान्त हो उठा है। चारों ओर पाखण्ड का अन्ध साम्राज्य फैलता जा रहा है। शान्ति कहीं नहीं दिखाई देती। इन भीषण परिस्थितियों को देख कर भगवान् ने प्राणिमात्र को क्लेश मुक्त करने का दृढ़ संकल्प किया। श्रमण महावीर किसी जाति, कुल, देश धर्म एवं पंथ के प्रति प्रतिबद्ध नहीं थे । उन्होंने समस्त प्राणिजगत् को आत्मवत् अपनाया था । प्राणि जगत् के अन्तर्जीवन में दिव्य ज्योति की रश्मियों को देख कर उन्होंने कहा -- "सब आत्माएँ अपने चिद्रूप - स्वरूप एवं स्वभाव से समान हैं । इसलिए सबको अपने समान समझो। किसी को पीड़ा मत दो । विश्व के सभी प्राणी सुख एवं शान्ति चाहते हैं । दुःख एवं अशान्ति की कामना कोई नहीं करता । " तत्त्वग्राहिणी दृष्टि के संवाहक पुरुष भगवान् महावीर ने इसीलिए मानव मुक्ति के सिद्धान्तों में किसी भी एकांगी विचारधारा को प्रथय नहीं दिया। असत् का परिहार और सत् का स्वीकार ही उनका एकमात्र जीवन-लक्ष्य था। यही बात है कि उन्होंने किसी मत, धर्म तथा संप्रदाय के प्रवर्तक और उसके मूल जन-मंगल के सिद्धान्तों की आलोचना नहीं की; क्योंकि उन्होंने एक में अनेक और अनेक में एक का साक्षात्कार किया था । उनकी सर्वव्यापिनी दृष्टि में विश्व का समग्र चैतन्य एक था । इसीलिए आत्म- चेतना के ऐक्यभाव को उद्घोषित करते हुए उन्होंने कहा--"एगे आया” अर्थात् विश्व की आत्माएँ एक हैं । अतः जो सुख तुम्हें प्रिय है, वह सबको प्रिय है और जो दुःख तुम्हें अप्रिय है, वह सबको अप्रिय है।" भगवान् महावीर भावनात्मक अभेद के विकास को ही अध्ययन, मनन, चिंतन का लक्ष्य मानते थे। उनके अनुसार, मानव जीवन के परम लक्ष्य विश्व कल्याण की साधना अभेद स्थापना द्वारा ही संभव थी। उनके समन्वयदर्शन की सबसे बड़ी विशेषता थी--" समन्वय स्थापना की प्रक्रिया में सभी पक्षों के 'स्व' की रक्षा" समन्वय को स्थायित्व प्रदान करने के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है। ऐसे सर्वभूतहितरत महापुरुष के पास पहुँच कर धर्म, संप्रदाय, जाति, देशकाल और भाषा की मानव निर्मित सारी कृत्रिम सीमाएँ ध्वस्त हो जाती हैं । तपःपूत जीवन तथा उपलब्धियों की विश्वसनीयता अक्षुण्ण रखने के लिए श्रमण-संस्कृति के विशाल चित्रपट पर उनके लीला-बिहार की शौर्य गाथा मानव-कल्याण के मार्ग में आने वाली सारी भेद- बाधाओं का परिष्कार करती है और जीवन की दिव्य उपलब्धियों की ओर अग्रसर होते रहने का मंगलमय संदेश देती हैं । एक शिष्य की पाप मुक्ति की जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान् ने कहा था -- जिसके विचार और व्यवहार में सभी प्राणी आत्मवत् हैं, निजस्वरूप हैं, जो सबको समान भाव से देखता है, वह पाप कर्म से मुक्त रहता है - " सव्व भूयप्प भूयस्स, सम्मं भूयाई पस्सओ..... पाव कम्मं न बन्धई ।" • ऐसे थे धर्म के अनुशास्ता भगवान् महावीर उनका जन्म ग्रहण इसी आत्मवत् दर्शन की करुणा द्रवित अने कान्त चिन्तना को व्यावहारिक रूप देने के लिए हुआ था। धर्म के नाम पर जहाँ एक ओर एक-दूसरे के मत, सिद्धान्त और चिन्तन को काटने का क्रम विद्वेष की सीमाओं जन सेवा : भगवत् पूजा है Jain Education International For Private & Personal Use Only १९९ www.jainelibrary.org.

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