________________
समयोचित निर्णय न लेते, तो धरती पर मनष्य का कोई अस्तित्व न रहता। एक-दूसरे का भक्षण कर मानव जाति दानव बन जाती और प्रकृति का स्वरूप कुत्सित हो जाता। में पूर्व में कह आया हूँ कि इस तरह के संक्रमणकाल में मानव-संस्कृति के उन्नायक अवतरित होते हैं और विकास को समयोचित दिशा एवं गति देते हैं।
जब हम ऋषभदेव-कालीन मानव-प्रवत्तियों पर और उसकी जीवनचर्या के संसाधनों पर दृष्टिपात करते हैं, तो एक सहज स्मित हास्य की रेखा भी होठों पर उभर आती है। एक कौतुहल एवं आश्चर्य भी हमारे मानस को झकझोर जाता है। भगवान ऋषभदेव ने अपने वक्त के मानव को अन्न खाना सिखाया था, पर कच्चे अनाज को खाकर पचा जाने की शक्ति लोगों में नहीं थी। उस वक्त अग्नि अगर थी भी कहीं, तो अगोचर थी और अन्न को पकाने के साधनों का अभाव था।
ऐसा नहीं था कि भगवान् ऋषभदेव अग्नि के बारे में नहीं जानते थे। उन्हें यह पता था कि काल की स्निग्धता के कारण अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती। दीर्घ समय के पश्चात् स्निग्धता जब कुछ कम हुई, तब उन्होंने काष्ठ को रगड़कर अग्नि उत्पन्न की और लोगों को भोज्य पदार्थों को पकाने का ज्ञान कराया।
इसी प्रकार जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में भी मनुष्य को विकसित दृष्टि प्रदान करने का श्रेय आदि तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव को ही जाता है। एक प्रकार से वे पहले समाज-शास्त्री, धर्म-व्याख्याता एवं कुशल प्रशासक थे। साथ-ही-साथ वे जीव-मात्र की पीड़ा के सहभागी भी थे। सर्वप्रथम उन्होंने ही “आत्मवत् सर्वभूतेषु" का पाठ मनुष्य को पढ़ाया एवं नवीन चेतना से समृद्ध किया।
अस्त्रों की होड़ ने आज के मानव को भयंकर रूप से हिंसक बनाया है। उस अस्त्र के प्रथम निर्माता भी भगवान् ऋषभदेव ही थे। उन्होंने ही असि अर्थात् तलवार का निर्माण किया, परन्तु उनका यह निर्माण हिंस्र पशुओं एवं आसुरी प्रकृति के अत्याचारी लोगों से मानव की रक्षा के लिए था। किन्तु, आगे चलकर इसका भयंकर दुरुपयोग हुआ, तुच्छ स्वार्थों के लिए भीषण नर-संहार हुए, सुरक्षा के स्थान पर आक्रामक रूप सामने आया, जिसने शस्त्रास्त्र धारण के मूल आदर्श को ही नष्ट कर दिया। जो भी हो, परन्तु शस्त्रास्त्र की एक सामाजिक उपयोगिता है इससे इनकार नहीं किया जा सकता। यदि असि से भविष्य में होने वाले अनर्थों के विकल्पों में ही ऋषभदेव उलझे रहते, तो आज मानव जाति का क्या भविष्य होता? गुण और दोष एक सिक्के के दो पहलू हैं। वे समय पर अपना-अपना स्थान लेते रहते हैं। 'दृष्टं किमपि लोकेस्मिन्, न निर्दोषं न निर्गुणम्' । प्रश्न वर्तमान का है। कुछ दूर तक के भविष्य का भी है। यदि अमुक समय या अमुक भविष्य तक किसी निर्णय की या बात की अर्थवत्ता है, तो उसका उपयोग करना चाहिए। सूदूर भविष्य के विकल्पों में अत्यधिक मस्तिष्क को उलझा देने से वर्तमान विनष्ट हो जाता है और वर्तमान के विनष्ट होने से बढ़कर समाज के प्रति बड़ा आघात और कुछ भी नहीं है। जूं पड़ जाने के भय से वस्त्र न पहनना बुद्धिमानी की बात नहीं है। जूं न पड़ने पाये, इसके लिए यथावसर वस्त्रप्रक्षालन का ध्यान रखना चाहिए। भोजन करेंगे, तो शौच की समस्या आएगी ही। यह तर्क मूर्खतापूर्ण नहीं तो और क्या है ? ऋषभदेव ने इसीलिए वर्तमान समय की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए मानव के हाथ में आत्मरक्षा के लिए तथा जो अशक्त, दीन और दुर्बल अपनी रक्षा करने में असमर्थ हैं उनकी आततायियों से रक्षा करने के लिए असि अर्पित की। उस वक्त उस करुणामति के समक्ष मनुष्य एवं उसकी सामाजिक रक्षा का प्रश्न ही सबसे बड़ा था। असि का निर्माण क्षतत्राण के सूत्र पर आधारित है। असि धारक 'क्षत्रिय' वर्ण के लिए प्रयुक्त, 'क्षत्र' या 'क्षत्रिय' शब्द इसी अर्थ को ध्वनित करता है । "क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः, क्षत्रस्व शब्दो भुवनेषु रूढ़: ।"
यही बात लेखन के सम्बंध में भी हैं। लेखन का भी भविष्य में दुरुपयोग हुआ। झूठे दस्तावेज लिखे गये। मिथ्या शास्त्र लिपिबद्ध हुए। हिंसा, विग्रह, एवं वासना-वर्धक पुस्तकें लिखीं गयी, यह सब हुआ पर साथ-ही-साथ कुछ अच्छी चीजें भी प्रकाश में आयीं। विचारों को स्थायी रूप देने के लिए लेखन एक बहुत बड़ी अपेक्षा थी मानव की। श्री ऋषभदेव ने उसकी तत्काल पूर्ति की। जम्बुद्वीप-प्रज्ञप्तिकार के विचार से प्रजा का हित सम्पादन किया। असि, मसि और कृषि आदि में हिंसा होते हुए भी मनुष्य का हित निहित है और जहाँ हित है, हित बुद्धि है, वहाँ पाप नहीं है, पुण्य है। अतः ऋषभदेव ने राज्य-शासन, व्यापार-वाणिज्य, शिल्प-कर्म एवं युद्ध-कला।आदि के प्रशिक्षण
देशकालानुरूपं धर्म कथयन्ति तीर्थंकराः
१८९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org