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महाकाल की बाधारहित गति चिन्तन के एक-एक बिन्दु को ज्ञानसिंधु के अतल तल में समाहित करती रही है। सृष्टि के विकास और इतिहास की चरम परिणतियाँ महाकाल के गुरुगंभीर पदक्षेप में ध्वनित होती रही हैं और प्रेरणा के नानाविध छन्दों को अणु-अणु में समाहित करती रहीं हैं। ऋजु संकल्पों के न जाने कितने सेतुओं का निर्माण विकास की संघर्षमयी चेतन गाथा में अब तक हो चुका है। न जाने कितने प्राज्ञ-स्वर ऐन्द्रियकबोध को कल्याण की भावधारा में बहाते रहे हैं और मानव अपने को संवारता-मांजता, इतिहास को हर पल नयी दिशा-दृष्टि देता कालातीत आयामों के अन्वेषण में अपने अहं-भाव को नियोजित करता रहा है।
उसके अटल संकल्प कभी कलकल निनादिनी सरिता की तरह गतिमान होते रहे हैं और कभी वह सागर की उत्ताल तरंगों की तरह अपनी अस्मिता को घोर गर्जना के साथ उछालता रहा है। कभी नेहमय दिव्यता से उसके मनोहर प्राण पुलकित होते रहे हैं और कभी वह शिला-खण्डों की तरह कठोर होता रहा है। मानवीय विकास की सदएषणायें विविधवर्णी पुष्पों की सौरभयुक्त मोहमयी गाथा हैं, जिसमें प्राण के नेहपुरुष अपनी अचिन्त्य महाशक्ति का विस्तार करते हैं और माधुर्यमयी तन्द्रा को सम्मोहित दृष्टि से टटोलते रहे हैं।
श्रमण-संस्कृति के उद्भव और विकास की कथा-यात्रा के विविध भावयक्त ऐतिहासिक कार्य-कारण संबंधों पर जब हम दृष्टिपात करते हैं-अन्तर्नयन द्वार पर ज्ञान और भक्ति का संवेगमय सागर हिलकोरे मारने लगता है। बीजांकुरों-सी सुकोमल भावनायें अन्तःप्रदेश को मथती चली जाती हैं और एक चैतन्य प्रवाह नैरंतर्य धारण कर लेता है। श्रमण-संस्कृति की उस नैरंतर्यता में ऐसा नहीं है कि बाधाएँ न आयी हों अथवा उसे कट अनुभवों से न गजरना पड़ा हो। श्रमण-संस्कृति की प्रवहमान धारा तो उस स्वयंभू निर्झरिणी के समान है, जिसे अपनी दिशा स्वयं निर्मित करनी पड़ती है। न जाने कितने अज्ञानरूपी शिलाखण्डों से टकरा कर वह उच्छल गति से बढ़ती रही है। न जाने कितने विभ्रान्तिजन्य झाड़-झंखाड़ उसके पथ-बाधक बने हैं, पर श्रमण-संस्कृति का वह वज्र निनाद-उसकी ज्ञानरूपी निर्झरिणी का उदग्र प्रवाह, उसकी मनोमुग्धहारी प्राणवत्ता--क्या कहीं से भी क्लान्त हो सकी है? इतिहास और दर्शन के दर्पण में जिसे झांककर देखने की लालसा हो, देख ले! देख ले कि वह महायात्रा अब भी जारी है और तब तक जारी रहेगी, जब तक मानव के मन में देवता बन जाने का संकल्प श्रद्धावान बना रहेगा।
आदिम मानव की वे व्यक्तिगत दैहिक प्रवृत्तियाँ-जिन्हें श्रमण-संस्कृति के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने सम्पूर्ण मानवीय सद्गुण स्वरूप प्रदान किया था--तीर्थंकर महावीर तक और उसके बाद भी निरन्तर अपने को श्रेयस् तक ले जाने के लिये कटिबद्ध होती रही हैं और जीवन के हर क्षेत्र को ऋजु संकल्पों से आप्लावित करती रहीं हैं। यही वह उत्कट तपःपूत संकल्प है, जिसके कारण श्रमण-संस्कृति विश्व वाङ्मय में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
दुग्ध-धवल श्रमण-संस्कृति ने निरन्तर सदुपायों द्वारा विकास के इतिहास को नये आयाम दिये हैं। काल की चेतना के अनुसार इसने अपनी प्राज्ञ-दृष्टि को निरन्तर मांजा है। समय की मांग को स्वीकारते हये इसने अपनी अस्मिता के मान-मूल्यों को वैचारिक ऊर्ध्वता प्रदान की है। अतएव प्रारम्भ से ले कर आज तक की विकासयात्रा के मध्य इसकी प्रखर तेजस्विता को युगीन सन्दर्भो में भी आकलित किया जा सकता है और विमग्ध भावदृष्टि जीवन के चांचल्य-भाव को दी जा सकती है एवं गति के मनहरण छन्द स्नेह संकल्पित ऊर्जा में ध्वनित किये जा सकते हैं।
श्रमण-संस्कृति की इस बहुविध चैतन्य-परम्परा के प्रथम तीर्थंकर आदि प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थकर महावीर तक मानवजाति के सुप्त देवत्व को जागृत करने की दिशा में आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्तर पर कितने संकल्पवान प्रयत्न होते रहे हैं, इसे क्या सहज ही समझा जा सकता है? इसे समझने के लिए तीर्थंकर-परम्परा के उद्बोधन की उस महायात्रा को चिन्तनशील गहन एकाग्रदृष्टि से निहारना होगा। यह विराट संस्कृति चौबीस तीर्थंकरों के मध्य की वैचारिक प्रक्रिया काल के हर पदक्षेप को अपने भीतर समाहित करती रही है और "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" की विराट् भावना को प्रचारित-प्रसारित करती रही
देशकालानुरूपं धर्म कथयन्ति तीर्थकराः
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