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होने लगती है, जिसका अर्थ है 'बस, आज से तुम, तुम और हम, हम ।' इतना भी रहे, तब भी गनीमत है। पर, वह तो आगे बढ़कर पूर्व स्नेही के सर्वनाश का खेल खेलने लगता है। सच्चा, निःस्वार्थ, निर्मल प्रेम तो एकमात्र यही शंखनाद करता है कि 'यूयं वयं, वयं यूयम्' अर्थात् तुम हम हैं और हम तुम हैं। तुम में और हम में कोई भेद नहीं है, अलगाव नहीं है। यह जीवन की वह परम अद्वैत-यात्रा है, जिसके लिए कहा गया है--'यत्र विश्वं भवत्येकनीड़म-- अर्थात् समग्र विश्व एक घोंसला है, जहाँ न कोई घेराबंदी है, न दीवार है, और न तालाबन्दी है । सब ओर से मुक्त अनन्त निर्मल आकाश । धारा में धारा, धारा में धारा मिलती जाए और बस एक ही विराट् धारा बहती जाए अनन्त की ओर। यही धारा प्रेम की धारा है, जिसके लिए गाया जाता है
"ज्योति से ज्योति जगाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो।"
यह जीवन का चिरन्तन सत्य है-'जो जैसा देता है, वह वैसा पाता है।' यह सत्य न कभी झुठलाया जा सका है और न कभी झुठलाया जा सकेगा। देखते हैं, खेत में जैसा बीज बोया जाता है, फसल पकने पर बोने वाले को वैसा ही मिल जाता है--गेहं है तो गेहं और चना है तो चना। इसके विपरीत कभी होता है ? नहीं होता है। मनुष्य के जीवन के सम्बन्ध में भी यही बात है। नफरत से नफरत मिलती है और प्यार से प्यार मिलता है। जैसे बीज की फसल बढ़ती है, वैसे ही नफरत और प्यार की फसल भी बढ़ती है। सावधान! आप क्या चाहते हैं, नफरत या प्यार? जो चाहते हैं, उसी दिशा में कदम बढ़ाइए। पर, हमारे महान् गुरुजनों का एक परामर्श है कि नफरत की दिशा में नहीं, प्यार की दिशा में चलिए। नफरत के खेल का अंजाम देखा है, देख रहे हैं। कितना गन्दा है यह खेल! कितने दर्द और हाहाकार से भरा हुआ है, घृणा का हर क्षण, नफरत का हर लम्हा। प्रेम के अमृत निर्झर में गहरा गोता लगाइए और इसी अमृत-रस का पान कीजिए, और परिणाम देखिए कि कितने अद्भुत आश्चर्यजनक आनन्द की उपलब्धि होती है। केवल आनन्द ही नहीं, एक विलक्षण अनबूझा चमत्कार हो जाता है। वास्तव में प्रेम विश्व का एक अनूठा चमत्कार है। प्रेम की निश्छल-निर्मल धारा के प्रवाह में आने वाले दुष्ट-से-दुष्ट तथा पापी-से-पापी व्यक्ति भी सज्जनता एवं शालीनता में अपने साथ एकाकार हो जाने के रूप में इतने परिवर्तित हो जाते हैं कि लाखों-लाख वर्षों तक इतिहास अहो-अहो की ध्वनि में आश्चर्य की आवाज लगाता रहता है।
उक्त सन्दर्भ में पुराकाल के अनगिनत आश्चर्यजनक उदाहरण हैं ही। भगवान् महावीर एवं तथागत बुद्ध आदि के युग की भी अनेकानेक मर्मस्पर्शी घटनाएँ हैं, जो आज तक विस्मृत नहीं हो पाई हैं। अर्जुनमाली, अंगुलीमाल, दस्युराज प्रभव आदि, हृदय परिवर्तन की इसी शृंखला के वे पुरुषोत्तम हैं, जो नीचे के कितने पतित धरातल से ऊपर उठे, और अन्ततः जीवन के कितने ऊंचे सर्वोच्च शिखरों को स्पर्श कर गए। मैं बहुत दूर नहीं जाऊंगा। मेरे समक्ष इन्हीं सौ वर्षों के आस-पास का एक ताजा उदाहरण है, 'बाबा काली कमली वाले' का। मैंने पढ़ा, तो में सहसा मंत्रमुग्ध-सा रह गया। वस्तुतः है भी घटना हृदय को गहराई तक छु जाने वाली।
बाबाजी का असली संन्यासी नाम विशद्धानन्द है। प्रेम और करुणा की साक्षात जीवित मति ! हिमालय के तीर्थों की पदयात्रा में उन्होंने देखा कि उत्तराखण्ड हिमालय के ऋषिकेश, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री आदि पर्वतीय तीर्थों की यात्रा कितनी भीषण एवं कष्टप्रद है। यात्रा क्या है, जीते-जी मरणवत होता है। और तो क्या, भोजन, वस्त्र, पात्र, निवास, चिकित्सा आदि जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की भी कोई व्यवस्था नहीं। हिंस्र वन्य पशुओं से प्राण रक्षा का भी कोई विशेष प्रबन्ध नहीं। सुख-सुविधा के नाम पर सर्वत्र नागार्जुन का एकमात्र शून्यवाद। यात्रा से जीवित घर लौट आना, तो बस प्रभु-कृपा या पूर्व जन्माजित किसी पुण्य एवं सत्कर्म का प्रताप ही समझिए।
स्वामीजी के अन्तःकरण में करुणा और प्रेम का निर्झर बह गया। उन्होंने यात्रियों के लिए सुरक्षा एवं व्यवस्था का शुभ संकल्प लिया और इस महान दुर्धर व्रत के प्रतीक स्वरूप एक साधारण काला कंबल कंधे पर डाला, स्वामी विशुद्धानन्द से 'बाबा काली कमली वाले' बने और अंगीकृत संकल्प की पूर्ति के हेतु भारत की धर्म-प्राण जनता के द्वार-द्वार पर अलख जगाने लगे।
सागर, नौका और नाविक
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