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"प्रबुद्ध तत्त्वः पुनरद्भुतोदयो, ममत्वतो निर्विविदे विदां वरः । धर्मगुरु वह है, जो 'विदां वरः' अर्थात् जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ हो। वक्ताओं में श्रेष्ठ--'वदतां वरः' हो और फिर 'ददतां वरः' अर्थात् ज्ञान-दान देने वालों में भी श्रेष्ठ हो। धर्मगुरु में तीनों गुण होने चाहिए--विदां वरः, वदतां वरः और ददतां वरः । श्रेष्ठ ज्ञाता,श्रेष्ठ वक्ता और श्रेष्ठ दाता। तात्पर्य यह है कि विशाल अध्ययन और गहन चिन्तन से प्राप्त सम्यक्-ज्ञान की ज्योति से ज्योतिर्मय और समय पर सही निर्णय देने में सक्षम अर्थात् विवेकपूर्वक बोलने वाला तथा शिष्य को ज्ञान का दान देने में उदार गुरु ही धर्मगुरु है और वही धर्म-कथा कर सकता है। अतः वाचना, पृच्छना और परिवर्तना से साधक 'विदां वर' बनता है, फिर अनुप्रेक्षा अर्थात् चिन्तन-मनन से 'वदतां वरः' श्रेष्ठ वक्ता बनता है और तब सही निर्णय करने एवं सही रास्ता बताने की क्षमता आने से वह 'ददतां वरः'--ज्ञान-दान देनेवाला श्रेष्ठ दाता बन जाता है।
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सागर, नौका और नाविक
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