Book Title: Sagar Nauka aur Navik
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 216
________________ तो उसके लिए पुनः खड़ा होना कठिन है, बैठ गया तो उठने की मुसीबत है। ऐसा जीवन किसी काम का नहीं होता। इसलिए भक्त प्रभु से प्रार्थना करता है कि तन की दरिद्रता दूर हो। तन स्वस्थ रहे, सशक्त रहे। कहावत है--स्वस्थ तन में स्वस्थ मन रहता है। तन अस्वस्थ है, तो मन भी अस्वस्थ एवं गिरा-गिरा रहता है। दूसरी दरिद्रता और है। वह है, बद्धि की दरिद्रता, सोचने समझने की दरिद्रता, विवेक की दरिद्रता। तन तो देवों जैसा बड़ा सुन्दर एवं पहलवान जैसा मजबूत मिल जाता है, परन्तु मस्तिष्क में सोचने-समझने की बुद्धि का, विवेक का दिवाला निकला रहता है। शरीर हृष्ट-पुष्ट है, पर खोपड़ी को देखो, तो उसमें गोबर भरा रहता है। बौद्धिक दरिद्रता स्वयं अपने लिए ही नहीं, समाज, परिवार एवं राष्ट्र के लिए भी घातक है। न तो वह अपने जीवन को सही दिशा में गतिशील रख सकता है और न परिवार, समाज, संघ एवं राष्ट्र हित के लिए कुछ कर सकता है। बुद्धिहीन एवं विवेक-शून्य जीवन वास्तव में जीवन ही नहीं है। वह बहुत भयंकर एवं खतरनाक जीवन होता है--अपने लिए भी और परिवार, समाज एवं राष्ट्र के लिए भी। इसलिए भक्त परम-ज्योतिर्मय महाप्रभु से प्रार्थना करता है कि मेरी बुद्धि की दरिद्रता समाप्त हो, मैं बुद्धि-सम्पन्न एवं विवेक-सम्पन्न बनें-- "धी महिधियो योनः प्रचोदयात्"। हमारी बुद्धि एवं विवेक सदा जागृत रहे, सही दिशा में गतिशील हो और आनंद का वातावरण तैयार कर सके। वह स्वयं के लिए भी आनंदवर्षी हो और वह जहाँ भी खड़ा हो जाए, वहाँ आनंद की गंगा बह जाए, धरती पर स्वर्ग उतर जाए। भगवान् महावीर के लिए कहा जाता है कि वे जहाँजहाँ कदम रखते थे, वहाँ-वहाँ स्वर्ण-कमल खिल जाते थे। आज भी आप भक्तामर-स्तोत्र में पढ़ते हैं-- "उन्निद्रहम--नवपंकजपुञ्जकान्ती, पर्युल्लसन् नखमयखशिखाभिरामौ। पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्तः, पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ।" आचार्य मानतुंग ने बहुत ऊँचाई से बहुत ही सुन्दर बात कही है। प्रभु का जीवन तो ऊँचाई पर है ही। वे जहाँ कदम रखते हैं, वहाँ कमल खिलते ही हैं। परन्तु प्रभु के धर्मपुत्र जहाँ पर धरते हैं, वहाँ क्या होता है ? वहाँ भी कमल खिलने चाहिए। अभिप्राय यह है कि प्रभु का बेटा साधक भी विवेक सम्पन्न है, बुद्धि का धनी है। अतः वह विवेकपूर्वक, कर्म-पथ पर जो कदम रखता है, चिन्तन-पूर्वक जो कार्य करता है, उससे जीवन में आनंद-मंगल के स्वर्ण-कमल खिलते ही हैं। एक और दरिद्रता है, जिसे हम दरिद्रता के रूप में जानते हैं और कहते भी हैं। वह दरिद्रता है--धनवैभव की, ऐश्वर्य की, भौतिक-साधनों की। भगवान महावीर ने अपरिग्रह की बात अवश्य कही है, परन्तु दरिद्रता का उपदेश नहीं दिया। अपरिग्रह का अर्थ है--जो मन में पदार्थों के प्रति आसक्ति है, ममता है, उन्हें बटोरने की तृष्णा-लालसा है और अर्थ को ही सब-कुछ समझने की मिथ्या-दष्टि है, उसका परित्याग करना। जीवन जीने के लिए साधन एवं सम्पत्ति एक सीमा तक आवश्यक है। जीवन का आदर्श सम्पत्ति की सीमा करना तो है, परन्तु भिखारी होना, दरिद्र होना और दर-दर भीख माँगकर जीना नहीं है। जीवन में ऐश्वर्य का भी अर्थ है। तथाकथित कुछ गुरु कहते रहते हैं कि इन पुद्गलों का, धन-सम्पत्ति का कोई अर्थ नहीं है। वैभव-ऐश्वर्य पतन का कारण है। पर, यह किसके लिए पतन का कारण है ? जो पापाचार में रत हैं, भोग-विलास में आसक्त हैं, जिनकी अन्दर की आँखें खुली नहीं हैं और जो सम्यक् रूप से न तो लक्ष्मी का उपार्जन करना जानते हैं, न उसका संरक्षण करना जानते हैं और न उसका उपभोग एवं उपयोग करना, उनके लिए ऐश्वर्य पतन का कारण है। परन्तु, जिनके अंदर की आँखें खुली हैं, उनके लिए ऐश्वर्य भी जीवन-विकास में सहायक हैं। यदि दरिद्रता जीवन का आदर्श होती, तो भगवान् आनंद श्रावक को व्रत स्वीकार कराते समय कहते--हे देवानप्रिय ! तु बारह करोड़ सोनैया क्यों रखता है ? ऐश्वर्य तो पाप है। सब-कुछ छोड़कर दरिद्र बन जा। परन्तु, महाप्रभु ने कहीं भी ऐसा नही कहा। और तो और, जब वे गर्भ में आये, तब उनकी माता त्रिशला ने १४ स्वप्नों में से चौथे स्वप्न में महालक्ष्मी का स्वप्न देखा। वह सूचना देता है कि वह अनंत ऐश्वर्य का स्वामी होगा। वह अंदर की अनंत विभूति भी प्राप्त करेगा और बाहर के वैभव से भी संपन्न होगा। आप भगवान् महावीर का वर्णन पढ़ते हैं, वे स्वर्ण सिंहासन पर बैठते थे, उनके ऊपर तीन छत्र रहते थे, दोनों ओर इन्द्र-इन्द्राणियाँ, देव-देवियाँ, राजा और १८२ सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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