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वैद्यजी ने कहा--अच्छा बताओ, तुम कितनी दूर तक देख सकते हो । रोगी ने सामने देखा और हाथ का संकेत करते हुए बताया कि सामने कुछ दूरी पर जो वह बड़ का पेड़ है, वहाँ तक साफ दिखाई देता है। वैद्यजी ने उस ओर देखते हुए आश्चर्यान्वित हो कर पूछा- क्या आस-पास बड़ का पेड़ भी है ? आँख पर आए हुए आवरण को दूर करने की चिकित्सा कर रहा है, पर स्वयं चिकित्सक को बड़ का इतना बड़ा वृक्ष ही दिखाई नहीं दे रहा है । जो स्वयं देख नहीं सकता, वह दूसरे की दृष्टि को क्या सुधारेगा, किस प्रकार सुधारेगा ?
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इस प्रकार ज्ञान एवं विवेक के अभाव में कभी-कभी विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती है । एक गांव था । उसमें अधिक आबादी गरीब मुसलमानों की थी । इधर-उधर से थोड़ा-बहुत पैसा एकत्रित करके उन्होंने एक छोटी-सी साधारण मस्जिद तो बना ली। परन्तु, उसकी सफाई के लिए एक आदमी रखना उनके लिए कठिन हो रहा था। उसे वेतन देने का सवाल था । वेतन कहाँ से दें, आय तो है नहीं । आखिर यह निर्णय लिया कि जो नमाजी आयें, वह एक मुट्ठी अनाज लेकर आयें। इसके लिए उन्होंने मस्जिद की दीवार में ही एक स्थान में एक मटका चिनवा कर रख दिया। जो भी नमाजी आता, वह उसमें एक मुट्ठी अनाज डाल देता। एक दिन एक बकरा उधर से निकला । अनाज की गंध से उसने अपना मुँह ऊपर उठा कर मटके को देखा और उसमें मुंह डाल दिया । मुँह तो उसमें डाल दिया, परन्तु उसमें से वापिस निकालना कठिन हो गया । उसकी गर्दन मटके में फंस गई, वह चिल्लाने लगा। लोग इकट्ठे हो गए। उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा, तो वे अपने एक पुराने बूढ़े मौलवी साहब को बुला लाये मौलवी साहब ने आते ही अपना रौब गांठना शुरू किया--"अरे मूर्खो ! तुमको मुझे बकरे के आने की पहले सूचना देनी चाहिए थी, जिससे तुमको बता देता कि बकरा आने वाला है, तो उसकी गर्दन मटके में न फंसने देना। अब क्या हो सकता है? उपस्थित लोगों ने बड़े ही विनम्र भाव से कहा पता हो नहीं था मौलवीजी कि बकरा इधर से आ धमकेगा । वह अचानक आया है, खाने के लालच में फंस गया है। खैर हमारी भूल हो गई, अब बताइए, क्या करें? मौलवीजी ने अपनी दादी को सहलाते हुए कहा कि तुरन्त दीवार तोड़ो दीवार तोड़ दी गई, फिर भी बकरे की गर्दन मटके में अटकी ही रही। फिर सोच कर कहा कि अब तो बकरे की गर्दन काट दो और कोई उपाय नहीं है। बेचारे बकरे की गर्दन काट दी गई। फिर भी गर्दन मटके में ही फंसी रही। तब सोच-विचार के बाद अन्त में कहा मटका फोड़ दो। मटके को फोड़ा कि वह घड़ से अलग हुई गर्दन मस्जिद के फर्श पर लुड़क पड़ी। समस्या का हल क्या हुआ, सर्वनाश ही हो गया। बूढ़ा मौलवी सिर पर हाथ रखकर रोने लगा। लोगों ने सोचा कि यदि पहले ही घड़े को फोड़ देने का तरीका बता देते, तो मस्जिद की दीवार भी बच जाती और बकरे को भी प्राणों से हाथ नहीं धोना पड़ता । शायद इसी दुःख से पीड़ित हो कर मौलवी रो रहा है। परन्तु, पूछने पर मौलवी ने बताया कि अभी तो मैं जीवित है, इसलिए तुम्हारी सम स्याओं को हल कर देता हूँ । परन्तु मेरे मरने के बाद तुम्हारा क्या हाल होगा ? यह विचार आते ही मुझे रोना आ गया एक मनचले युवक ने कह ही दिया-मौलवी साहब ! यदि पहले ही घड़े को फोड़ दिया जाता, तो दीवार एवं बकरे का नुकसान तो नहीं होता। इस पर मौलवीजी गुर्राये कि जी हाँ, पहले ही बड़ा फोड़ देने से गर्दन निकल सकती थी । यह उपाय में भी जानता था, परन्तु इसका सही तरीका वही था, जिस क्रम से मैंने बताया है। सत्य के सामने आने पर भी व्यर्थ ही उसे झुठलाने और अपने मिथ्या ज्ञान का अहंकार करने वाला मूढ़ व्यक्ति न तो अपना ही कल्याण कर सकता है और न दूसरों को ही सही रास्ता बता
सकता है।
धर्म-कथा करना आसान बात नहीं है। कुछ बंधे-बंधाये परंपरागत आचार के नियमों का पालन करके नाम का गुरु तो कोई भी बन सकता है, परन्तु गुरुत्व के योग्य कर्म का अनुष्ठाता गुरु कोई विरला ही होता है। अतः धर्म-कथा करने का अधिकार हर किसी व्यक्ति को नहीं है। उसके लिए व्यापक अध्ययन -स्वाध्याय होना चाहिए, स्वाध्याय का बार-बार पर्यटन होना चाहिए और उस पर होना चाहिए गहन चिन्तन तभी वह धर्म। कथा करने का अधिकारी होता है। कभी-कभी परंपरा-पालन की झोंक में आचार अनाचार का रूप ले लेता है, सदाचार कदाचार बन जाता है। ऐसे अवसर पर सही निर्णय ले सके, वही धर्मगुरु है। महाभारत में उल्लेख है जब कभी शिष्य गुरु से कुछ पूछता है, तो गुरु को वह 'वदतां वरः' अर्थात् बोलने वालों में श्रेष्ठ वक्ता के संबोधन से संबोधित करता है। आचार्य समन्तभद्र ने भगवान् ऋषभदेव की स्तुति करते हुए भगवान् को 'विदां वरः' कहा है, अर्थात् ज्ञानियों में श्रेष्ठ ।
उदयति दिशि यस्याम्
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