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महाश्रमण महावीर, जो देवों के भी देव हैं, देवाधिदेव हैं। जिनके ज्योतिर्मय चरणों में धरती और स्वर्ग दोनों वन्दना के लिए झुक जाते हैं। महल एवं झोपड़ियाँ दोनों एक साथ पावन चरण-रज लेने को एक साथ झुक गई। वह विराट ज्योतिर्मय आत्मा है, जिन्होंने अपने अन्दर सोये हुए ईश्वर को जगा लिया है। उनका परमात्मा कहीं बाहर में नहीं, अन्दर में ही सोया था, उसे जगा लिया और ऐसा जगाया कि अनन्त-अनन्त काल के लिए, सदासर्वदा के लिए, अब जागरण ही जागरण है। अब पुनः सोने का सवाल ही नहीं रहा।
__उस अनन्त ज्योतिर्मय महापुरुष की वाणी है--ये संसारी आत्माएँ अनन्त-अनन्त काल से मोह के वश अपने स्वरूप को भूली हुई हैं। इन्हें यह भी पता नहीं कि हम कौन हैं ? इस देह को, मिट्टी के पिंड को ही अपना स्वरूप समझती रही हैं। मैं इस देह से भिन्न हूँ--यह भेद-विज्ञान तथा जड़-चेतन का भेद मोह से ग्रस्त आत्मा की अनुभूति में आया नहीं। उस महापुरुष ने जड़-चेतन के भेद के गूढ़ रहस्य के द्वार को उद्घाटित किया और बताया कि मैं कौन
हूँ
महाश्रमण महावीर ने उद्बोधन के रूप में हर आत्मा को लक्ष्य करते हुए कहा है--तू मिट्टी नहीं है, तू जल भी नहीं है, तू पवन का खेल मात्र भी नहीं है, तू अग्नि की ज्वाला भी नहीं है और न तू आकाश है। तू पञ्च महाभूतों से निर्मित इस देह से सर्वथा भिन्न है। ये पञ्च महाभूत जड़ हैं और तू चेतन है, ज्योतिर्मय है। इन पञ्च महाभतों से तेरा नहीं, तेरे शरीर का निर्माण हुआ है। तू तो निर्माण से परे हैं। तू तो अनादि-अनन्त है। तू अजन्मा है। इसलिए तू अमृत है। जन्म-मरण तेरा नहीं, देह का होता है। वही बार-बार बदलता है। उसमें निवसित तू जन्म-मरण से रहित है। संसार में कोई शक्ति नहीं, जो तुझे मार सके।
भगवान् महावीर ने जन-जन को पहला बोध यही दिया था। अपने स्वरूप को जानो, समझो। तीर्थंकर सर्वप्रथम स्वरूप की ज्योति ही जगाते हैं, अहिंसा आदि की बात बाद में करते हैं। साधु-जीवन के, श्रावक-जीवन के व्रत, नियम, उपनियम की चर्चा वे बाद में करते हैं। अर्हन्त भगवान् की सबसे पहली चर्चा होती है--स्वरूपबोध की। जिसे आगम की भाषा में सम्यक्त्व कहते हैं, सम्यक्-दर्शन कहते हैं, सम्यक-बोध कहते हैं।
सम्यक-दर्शन का अर्थ है--वस्तु के स्वरूप को देखने-परखने की तथा समझने की दृष्टि का सम्यक् होना अर्थात् वस्तु को ठीक तरह से देखना। किसको देखना? क्या पहाड़ों को, नदी-नालों को, ग्रह-नक्षत्रों को एवं अन्य पदार्थों को अच्छी तरह देखना ? नहीं, ऐसा नहीं है। देखना है, निज स्वरूप को। निज स्वरूप की झांकी पा लेना सम्यक्-दर्शन है। अपना स्वरूप देखने का तात्पर्य है कि अपना जो यथार्थ स्वरूप है, अनन्त चेतना है, उसे जान लेना। जड़ क्या है और चेतन क्या है ? और मेरा अपना स्वरूप क्या है--जड़ या चेतन ? यह भेद-विज्ञान ही सम्यक्दर्शन है। भेद-विज्ञान से तत्त्व का यथार्थ बोध हो जाता है। जड़-चेतन के स्वरूप-बोध के साथ यह भी ज्ञात हो जाता है कि आश्रव, संवर, पुण्य-पाप, बन्ध, निर्जरा एवं मोक्ष का तात्विक स्वरूप क्या है ? तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानना ही सम्यक-दर्शन है। और यह सम्यक्-दर्शन मूल में आत्मा का स्वरूप है। प्रभु की वाणी को हृदयंगम करके जीवन में उतारनेवाले उनके महान् शिष्यों ने कहा है
"जीवादिसद्दहणं सम्मत्तं स्वमप्पणो तं तु"
चैतन्य को जानने का अर्थ है--चैतन्य की प्रतीति होना। और, चैतन्य से भिन्न जो है वह जड़ है। यह भेद-विज्ञान की प्रतीति अन्तर से स्फुरित होती है। मेरा स्वरूप निरंजन, निविकार, ज्ञानमय है। जड़-जगत् चेतना से सर्वथा शून्य है। इसलिए उससे मैं सर्वथा भिन्न हूँ। जीवादि पदार्थों की, तत्त्वों की, जो श्रद्धा है, प्रतीति है, स्वानुभूति है, वही सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व कोई बाहर से आगत वस्तु नहीं है, वह आत्मा की स्वयं की ज्योति है और स्वयं में ही प्रज्वलित है। वस्तुतः सम्यक्त्व लेने-देने-जैसी नहीं है। लेन-देन बाह्य वस्तु का होता है। अपने स्वरूप की, जो है, जैसा है--प्रतीति होना, विश्वास होना, श्रद्धा होना, यह आत्म-जागृति है। भला, इसे कोई व्यक्ति क्या देगा और कोई व्यक्ति कैसे लेगा? श्रमण भगवान् महाबीर ने आत्मा के स्वरूप का, तत्त्व के स्वरूप का और सम्यक्त्व के स्वरूप का वर्णन तो किया, लेकिन आगम में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है कि उन्होंने किसी भी व्यक्ति को सम्यक्त्व दी या किसी व्यक्ति ने उनसे सम्यक्त्व ली। भगवान् व्यवहार दृष्टि से श्रावक के व्रतों के तथा साधु
सम्यक्त्व पंथो के घेरे में
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