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के सिद्धान्त के अनुरूप है? बड़ा आश्चर्य है, अपने आपको उत्कृष्ट चारित्र के साधु मनानेवाले भी कितने नीचे स्तर पर उतर आते हैं। और तो और, उनके जीवन में शिष्टाचार भी परिलक्षित नहीं होता । आज का दीक्षित साधु भी यदि दूसरी सम्प्रदाय का पचास-साठ वर्ष का दीक्षित साधु आ जाय, तो वह उसका साधारण शिष्टाचार जितना भी सम्मान नहीं करता। उसके सामने भी वह पट्टे पर ही अकड़ा बैठा रहता है, उन्हें नमस्कार करना, उन्हें आदर-सम्मान देना, उनका स्वागत करना तो दूर रहा ।
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आप आश्चर्य करेंगे गौतम की बात पर । गौतम स्वामी भगवान् महावीर के १४ हजार शिष्यों में प्रमुख शिष्य हैं, प्रथम गणधर है, चीदह पूर्वधर हैं। वास्तव में उनमें ज्ञान का अपार सागर लहरा रहा था और ज्ञानी ही नहीं, महान् तपस्वी भी थे वे। पंचम गणधर आर्य सुधर्मा ने भी मुक्त मन से गौतम की भक्ति स्निग्ध प्रशंसा की है, जबकि एक भाई दूसरे भाई की प्रशंसा कम ही करता है। आज के अपने अहंकार इतने बड़े होते हैं कि वह अपने बराबर के भाई के गुणों को, यश को सहन नहीं कर पाता। लेकिन, आर्य सुधर्मा भगवती सूत्र में कहते हैं"उग्ग तवे, दिस तवे, घोर तवे।" गौतम उग्र तपस्वी हैं, दीप्त तपस्वी है, घोर तपस्वी हैं। वह विशेषण पर विशेषण लगाता चला गया है। यही महान तपस्वी एवं ज्ञानी गौतम श्रावस्ती में आये और उधर भगवान् पार्श्वनाथ परम्परा के आचार्य केशी श्रमण भी श्रावस्ती में आये। दोनों परम्परा के श्रमणों ने नगर में भिक्षा-चर्या करते समय अपने से भिन्न वेष एवं नियमों को परस्पर में देखा, तो उनके मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही था कि दोनों तीर्थंकरों का जब धर्म एक है, लक्ष्य एक है, फिर वेष में नियमों में यह अन्तर क्यों ? गौतम के सामने शिष्यों के द्वारा जब यह प्रश्न आया तो उन्होंने यह कहकर नहीं टाल दिया कि वे अलग परम्परा के हैं, मिष्यात्वी हैं, या शिथिलाचारी है, हमें उनसे क्या लेना-देना है परन्तु शिष्यों की जिज्ञासा का सम्यक समाधान करने के लिए इतने विशाल गण का स्वामी गणधर गौतम अपने पाँच सौ शिष्यों को लेकर भ्रमण केशीकुमार के पास आये। उत्तराध्ययनसूत्र में उक्त घटना का वर्णन करते हुए लिखा है--गौतम, केशीश्रमण के द्वारा प्रदत्त आसन पर बैठ गये ।
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आसन कशीकुमार श्रमण का था, जिन्हें आज की भाषा में शिथिलाचारी कहते हैं । वे वस्त्र पहनते थे, इतना ही नहीं, पाँचों रंगों के वस्त्र पहनते थे, मूल्यवान वस्त्र भी धारण करते थे । चातुर्मास का भी उनके यहाँ कोई नियम नहीं था। देवसी रायसी प्रतिक्रमण का तो क्या, पक्खी, चौमासी और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने का भी नियम नहीं था उनके वहाँ न वेष एक था, न नियम उपनियम एक जैसे थे और शासन की परम्परा का भेद तो था ही। फिर भी गौतम उनके आसन पर बैठ जाते हैं और उनके शिष्य केशीश्रमण के शिष्यों के आसन पर बैठ जाते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में उस समय का वर्णन करते हुए कहा है---" उमओ निसन्ना सोहन्ति, चन्दसूर-समप्पभा।” आगमकार कहते हैं कि गणधर गौतम और आर्य कैशीश्रमण दोनों एक ही आसन पर ऐसे शोभायमान हो रहे हैं, जैसे चन्द्र एवं सूर्य यदि गौतम और केशीश्रमण यह समझते कि परस्पर विरुद्ध दो भिन्न परम्पराओं के बाह्य आचार में, बाहर के नियमों में काफी दूर तक अन्तर है, इसलिए उनकी श्रद्धा में भी विपरीतता होगी, तो वे कभी एक साथ नहीं बैठते, एक-दूसरे का आदर-सम्मान नहीं करते। आज के कुछ साधुओं की दृष्टि से तो वे मिथ्यादृष्टि के साथ बैठ गये । परन्तु, गौतम ने बाह्य आचार के भेद को, कोई महत्व नहीं दिया । उन्होंने स्पष्ट भाषा में कहा - लिंग अर्थात् वेष लोक में मात्र प्रतीति के लिए है। बाह्य आचार व्यवहार मात्र है। कितना महान् है गौतम ! कितना उदार हृदय है गणधर गौतम का !
गौतम के विशाल हृदय का परिचय भगवती में उस समय भी मिलता है, जिस समय परिव्राजक स्कंधक संन्यासी भगवान महावीर के समवसरण में आ रहा था, तब वे कहते हैं-गौतम ! तेरा मित्र आ रहा है। उस समय वह परिव्राजक था जो मिथ्यादृष्टि था। उस समय न तो उसकी दृष्टि सम्यक् धी और न आचार ही सम्यक् था। फिर भी गौतम उसे लेने के लिए गए और उसे देखते ही कहा--" सागयं संदया सुस्सागयं खंदया।" स्कंधक में तुम्हारा स्वागत एवं सुस्वागत करता हूँ। आजकल भी किसी अतिथि के आने पर 'स्वागतम्' कहते हैं। वैसे ढाई हजार वर्ष पहले भी यही भाषा बोली जाती थी। स्कंधक ! तुम्हारा सुस्वागत तुम बहुत अच्छे समय पर आये हो ? यह है, गणधर गौतम का एक संन्यासी के साथ व्यवहार और एक है हमारा आज का साधु वर्ग । पास्थितिवादी कुछ साधु अपने आचार को गौतम से भी बढ़कर मानने का दावा करते हैं। यह सब गलत है। आचार की श्रेष्ठता बाह्याडंबर के अहंकार में नहीं है, दंभ में नहीं है, वह है विनम्र भाव में, सहज भाव में गौतम । ने जितनी चर्चाएँ की है, विनम्र भाव से की है। इस सन्दर्भ में उत्तराध्ययन का केशी-गौतम संवाद अद्भुत है। बाह्य
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सागर, नौका और नाविक
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