Book Title: Sagar Nauka aur Navik
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 193
________________ मानव-सभ्यता के इतिहास में बीसवी शताब्दी को सूवर्णयुग कहा जा सकता है। अतीत की तुलना में इसकी अनेक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं। खेत-खलिहानों से लेकर कला, साहित्य, तकनीकी एवं विज्ञान के क्षेत्र में आश्चर्यजनक आविष्कार और प्रगति हुई है। हर क्षेत्र में वर्तमान अतीत को पीछे छोड़ रहा है। सम्पत्ति बढ़ी है। साधन बढ़े हैं, तन्दुरस्ती बढ़ी है। और इन सारी प्रगतियों में विश्व जन-चेतना में राजनैतिक सहयोग, सद्भावना, समन्वय की भावना बढ़ी है। इस शताब्दी की सबसे महत्त्वपूर्ण यह उपलब्धि है। पिछले कुछ दशकों में विश्व के कुछ महान् क्रान्त-द्रष्टाओं ने एक विचार प्रस्तुत किया है--धरती अगर एक है, तो देश एक है। उसके प्रश्न एक है, उसका समाधान एक है। आज के इस प्रगतिशील दुनिया में अगर हमें शान के साथ जीना है, तो एक होकर जी सकेंगे, अन्यथा सबकी सामूहिक मृत्यु निश्चित है। इन महान विचारकों के कारण राष्ट्रों में परस्पर सौहार्द बढ़ा है, सद्भाव बढ़ा है। दूसरे धर्मों को सम्मान के साथ समझने का प्रयास हो रहा है। परस्पर एक-दूसरे के इतिहास एवं परम्परा के प्रति गौरव का भाव बढ़ा है। इतना ही नहीं, उदारता के साथ दूसरों की अच्छाइयों को स्वीकार किया जा रहा है, उनका मुक्त मन से अध्ययन-मनन-चिन्तन भी किया जा रहा है। इस उदारता के फलस्वरूप राष्ट्रों में परस्पर मैत्री बढ़ी है। प्रथम महायुद्ध के बाद निरन्तर यह अनुभव किया जाता रहा है कि परस्पर के संघर्ष, तनाव तथा युद्ध से हम राष्ट्रों का विकास अथवा निर्माण नहीं कर सकेंगे। द्वितीय महायुद्ध के बाद यह धारणा और अधिक दृढ़ होती गयी कि परस्पर एक-दूसरे राष्ट्रों की स्वतन्त्रता को स्वीकार करने का अर्थ है कि उनके आन्तरिक व्यवस्था में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। आज छोटा-से-छोटा निर्बल राष्ट्र भी उतनी ही स्वतन्त्रता के साथ जी सकता है, जितना एक शक्तिशाली राष्ट्र। कोई किसी की स्वतन्त्रता का हनन नहीं कर सकता। इतना ही नहीं, विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के द्वारा अथवा मित्र राष्ट्रों के द्वारा कमजोर राष्ट्रों के विकास में मुक्त मन से सहयोग दिया जा रहा है। हर राष्ट्र की आजादी की सुरक्षा केवल एक राष्ट्र का प्रश्न न होकर अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्न हो गया है। अगर कोई शक्तिशाली राष्ट्र किसी निर्बल राष्ट्र को दबोचना चाहता है, हड़पना चाहता है, तो ऐसा वह सहसा नहीं कर सकता। वैचारिक दुनिया में उसकी भर्त्सना होती है। उसे अमानवीय करार दिया जाता है। और कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि कमजोर राष्ट्र की सुरक्षा के लिए अन्य राष्ट्र अपनी सेना देने के लिए आगे भी आ जाते हैं। कुछ लोगों की नजरों में उन राष्ट्रों का यह अपना हित एवं स्वार्थ भी हो सकता है। कुछ भी हो, किसी न किसी रूप में अन्याय के प्रतीकार का एवं पारस्परिक सहयोग का मार्ग तो प्रशस्त हुआ ही है। गलत कार्य न किया जाए, उसके लिए U.N.O. संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे विश्व संघटन के संस्थान भी दबाव डालने का प्रयत्न करते हैं। भले ही उसका मूल्य जितना होना चाहिए, उतना नहीं होता है। यह बात केवल सत्ता की दृष्टि से ही नहीं, विचारों की दृष्टि से भी कोई एक राज्य दूसरे राज्यों के विचारों से प्रभावित होना पसंद नहीं करता। कोई किसी का पक्षकार होकर रहना नहीं चाहता। गुट-निरपेक्ष समन्वय व्यूरों सम्मेलनों के द्वारा प्रयत्न किया जा रहा है कि कोई किसी की अन्तरङ्ग व्यवस्था में हस्तक्षेप न करें। इस प्रकार एक-दूसरे के साथ मैत्री के मधुर सम्बन्धों का विस्तार ही आज के युग की अपेक्षा है। अतीत में ऐसा नहीं था। साम्राज्य-विस्तार की महत्त्वाकांक्षा म एक राजा दूसरे राजा को युद्ध के द्वारा पराजित करके अपना शासन सुदढ़ करता था। पड़ोसी राजाओं में आये दिन सीमा-युद्ध होते रहते थे। छोटे राज्य कभी ठीक तरह विकास नहीं कर पाते थे, उनके सिर पर शक्तिशाली राज्यों के आक्रमण का भय बना रहता था। एक-दूसरे को हड़पने की ताक में घात-प्रत्याघात होते रहते थे। राज्यों की शक्ति अधिकांश में सैन्य-शक्ति पर केन्द्रित रहती थी। अतः तत्कालीन राजनीति का युद्ध ही एक केन्द्रीय समाधान था, उसी के इर्द-गिर्द राज्य-शक्ति परिक्रमा करती रहती थी। आज जो गरीबी, अभाव, अशिक्षा, शोषण आदि के काले बादल छाये हए हैं, उसका अधिकतर भाग उसी पुरानी विग्रहमूलक राजनीति का ही दुष्परिणाम है। यह सदियों पुराने मानव जाति के केवल दोष ही नहीं, कलंक हैं, जो अभी तक धुल नहीं पाए हैं। फूल के साथ कांटे भी १५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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