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व्यवहार की दृष्टि से गंगा-यमना की तरह अलग-अलग पथ पर प्रवहमान दोनों धाराएँ मिलकर एक हो गई, इसका श्रेय गौतम की उदारता को ही प्राप्त है। आज भी उत्तराध्ययन में वह इतिहास का ज्योतिर्मय पृष्ठ सुरक्षित है।
सम्यक्त्व, जब बदली या बदलाई जाती है, तो मेरी समझ में नहीं आता कि उसे कैसे बदला जाता है ? सम्यक्त्व आत्मा का स्वरूप है ! आत्म-स्वरूप का बोध होना, जड़-चेतन का भेद-विज्ञान होना, सम्यक्त्व है। अब इसे कैसे बदलेंगे? क्या गरु किसी के स्वरूप-बोध को भी बदल सकता है ? आत्म-परिणति को बाहर से कोई भी बदल नहीं सकता। आत्म-स्वरूप को, सम्यक्त्व के स्वरूप को गुरु समझा तो सकता है, परन्तु किसी को दे-ले नहीं सकता। आत्म-दर्शन की सम्यक या मिथ्या, जो पर्याय है, वह आत्मा की अपनी स्वयं की है। उसे अपनी परिणति से व्यक्ति स्वयं ही बदलता है, कोई बाहरी व्यक्ति नहीं। जड़-चेतन के भेद-विज्ञान को कोई क्या बदलेगा? क्या कोई भी गुरु जिसने सम्यक्त्व दी है, किसी की सम्यक्त्व को बदला है--क्या यह कहेगा, शरीर ही आत्मा है, चेतन जड़ से भिन्न नहीं है? प्रत्येक गुरु यही तो कहेगा--यह शरीर आत्मा नहीं है। आत्मा का स्वभाव शरीर से सर्वथा भिन्न है। वह शरीर में रहते हुए भी शरीर से पृथक् है। फिर बदला क्या ?
कुछ साधु कहते हैं कि स्वरूप-बोध निश्चय सम्यक्त्व है, हम जो देते हैं, वह व्यवहार में है। व्यवहार में प्रत्येक धर्म-गुरु--भले ही वह किसी भी सम्प्रदाय का हो, किसी भी पंथ का हो, एक ही बात कहता है--देव, गुरु
और धर्म पर श्रद्धा-निष्ठा रखो। सभी यही कहते हैं---देव अर्हन्त है, गुरु निर्ग्रन्थ हैं, और वीतराग द्वारा प्ररूपित मार्ग ही धर्म है। ऐसा कौन गुरु है, जो इससे विपरीत बात कहता हो, फिर क्या बदला आपने। यह तो ऐसा ही हुआ, जैसे भेड़ चराने वाले चरवाहे अपनी भेड़ों की पहचान के लिए उन पर अलग-अलग रंगो की छाप लगा देते हैं, वैसे ही यह दी-ली जानेवाली सम्यक्त्व सिर्फ पंथों की, सम्प्रदायों की छाप है।
श्रमण भगवान महावीर ने एवं महान आचार्यों ने आगमों में एवं उनकी व्याख्याओं में संघ-भेद को सबसे बड़ा पाप कहा है। परस्पर विग्रह पैदा करना, संघर्ष उत्पन्न करना, फूट डालना महान् पाप है। अज्ञान एवं साम्प्रदायिक व्यामोह के कारण लोग इन तथाकथित परम्पराओं के शिकार हो जाते हैं। इसलिए सम्यक-बोध की अपेक्षा है, सम्यक्-ज्ञान की अपेक्षा है। आपको सम्यक्-बोध है, सम्यक्-ज्ञान है, तो आप इस संसार अटवी के सघन अंधकार में इधर-उधर भटकते हुए, ठोकरे खाते हुए व्यक्तियों की अन्तर्-ज्योति जगाइए। उन्हें आत्म-स्वरूप का बोध दीजिए। भगवान महावीर का तत्त्व-ज्ञान तथा अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रह का स्वरूप बताइए। उनकी जीवन धारा बदलिए, केवल पंथ एवं गुरु के बदलने से क्या होगा? युग बदल गया है। "काना बाती कुर, तु चेला मैं गुर" के अन्ध-मंत्र अब अधिक कारगर नहीं रहे हैं। जन-जागरण की लहरों में ऐसे आधारहीन गुरुडम के मंत्र कुछ तो बह गए हैं और कुछ निकट भविष्य में बह जाएँगे।
राजस्थान के एक गाँव में मैं गया। वहाँ पर एक परम्परा से सम्बद्ध सन्त भी थे। एक श्रावक ने उनसे कहा--मेरे गुरुजी का स्वर्गवास हो गया, तो सन्त ने कहा--अब तुम सम्यक्त्व बदल लो। क्या अर्थ हुआ इसका ? गरु के देहान्त के साथ क्या चेले की सम्यक्त्व का भी देहान्त हो गया? इसका अर्थ तो यह हुआ कि भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ, तो उनके द्वारा बताए गए मोक्ष-मार्ग का भी, रत्न-त्रय की साधना का भी सर्वत्र निर्वाण हो गया। कितना बड़ा अज्ञान है। राजस्थान में एक बार चक्र चला था कि स्वर्गस्थ गुरु की जय नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि वे तो स्वर्ग में गए हैं। अतः वर्तमान में अव्रती हैं। कितना बेहदा तर्क है। पता है, जय किसकी बोली जाती है ? जय बोली जाती है, गणी के गणों की, उनके संयम की। और यह नैगमनय की दृष्टि से अतीत के आधार पर भी बोली जाती है। शरीर नहीं रहा, पर गुण और उनकी स्मृति तो अमर है। गुणों की पावन-स्मृति के आधार पर ही नन्दीसूत्र के रचनाकार आचार्य देववाचक भगवान महावीर, गणधर गौतम एवं गणधर आर्य सुधर्मा के साथ चतुर्दश पूर्वधर आचार्य प्रभव, शय्यंभव एवं भद्रबाहु को भी नमस्कार करता है। यह स्पष्ट है कि श्री जम्बूस्वामी के बाद के ये सब आचार्य स्वर्ग में गए हैं। आचार्य देववाचक एक महान् ज्ञानी सूत्रकार आचार्य थे। यदि स्वर्गस्थ गुरु की जय बोलना भी पाप होता, तो वे उनको नमस्कार कैसे करते? अस्तु, आज की इन सब गलत धारणाओं के पीछे पंथ का व्यामोह मात्र है, सत्य नहीं है। भगवान् महावीर के उदात्त दर्शन, उदात्त चिन्तन की ज्योति बिल्कुल नहीं है। ऐसी स्थिति में कौन गुरु प्रकाश देगा? महान् संस्कृत व्याकरण के रचयिता प्राचीन आचार्य पाणिनि ने सद्बोध के दाता सच्चे गुरु की व्याख्या करते हुए कहा था--
सम्यक्त्व पंथो के घेरे में
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