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भगवान् महावीर ने उसके मन का समाधान करते हुए कहा - "मेघ संयम में रहने या नहीं रहने का निणय तो तुझे स्वयं करना है। हाँ, अपने स्वरूप और जीवन के महत्त्व को पहले अच्छी तरह समझ ले । रात साधुओं के आने-जाने से निद्रा भंग के कारण तुझे जो कष्ट और वेदना हुई, उसका क्या महत्त्व है, उस जरासी बात का अपने में कोई अर्थ है ? महत्त्व है उस वेदना का, जो तू ने एक प्राणी की रक्षा के लिए समभाव से सहन की है। पूर्वभव में तू हाथी था। वन के दावानल से अपने प्राण बचाने के लिए तू अपने हाथियों के झुण्ड के साथ एक साफ मैदान में आ गया था। कुछ ही देर में विशाल मैदान जंगल के अन्य जानवरों से भर गया। एक शशक (खरगोश) प्राण-रक्षा के लिए किनारे-किनारे इधर-उधर घूम रहा था उसे अन्दर बैठने को कहीं जगह नहीं मिल रही थी। उस समय त ने शरीर खुजलाने के लिए अपना एक पैर ऊपर उठाया, तो उस रिक्त स्थान में वह खरगोश सट आकर बैठ गया। 'पर' नीचे रखते समय तू ने उसे देखा और सोचा कि यदि मैंने नीचे पैर रख दिया, तो यह बेचारा मर जाएगा। उसकी रक्षा के लिए तीन दिन तक तू ने अपना पैर ऊपर ही रखा। दावानल के शान्त हो जाने पर सब जानवर चले गए, तब तू अपने पैर को नीचे रखने लगा तो ठीक तरह रखा न जा सका वह अकड़ गया था। इसलिए तू जमीन पर गिर गया। उस समय न तुझे कोई पानी पिलानेवाला था और न भोजन देनेवाला । फिर भी तेरे मन में खरगोश पर आवेश और क्षोभ नहीं आया । करुणा के कोमल भावों में ही शान्तिपूर्वक अपने प्राणों का त्याग कर तू ने श्रेणिक के पर जन्म लिया। मेष ! उस वेदना के सामने यह कष्ट भी कोई कष्ट है, जिससे पीड़ित होकर तू संयम छोड़ने का विचार कर रहा है।"
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अपने पूर्व जीवन की घटना सुनकर मघमुनि की स्मृति अतीत में, पूर्वजन्म के अतीत में लौट गई और जाति स्मरण शान में वह सम्पूर्ण पटना चित्र आँखों के सामने आ गया। संयम पालन का पुनः दृढ़ संकल्प करते हुए मेघमुनि ने भगवान् महावीर के सामने प्रतिज्ञा की कि 'प्रभो! संयम पालन में उपयोगी इन दो आँखों की तो सुरक्षा करूंगा, परन्तु इनके अतिरिक्त मेरा समग्र तन वीतराग- पथ पर अर्पित है।" अभिप्राय यह है कि साधनाक्षेत्र में भी आँखों का कितना महत्त्व है। मेघमुनि को भी आँखों की ही रक्षा का ध्यान आया ।
परन्तु मूल बात यह है कि यह तन और इन्द्रियां तो हमें पहले भी अनेक बार मिल चुकी है और इस जन्म में भी मिली हैं। परन्तु इनका मिल जाना ही पर्याप्त नहीं है । इनके साथ विवेक की दृष्टि का होना ही जीवन - विकास के लिए उपयोगी है। क्योंकि किसी वस्तु का मिल जाना अपने में कोई खास महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है-- प्राप्त साधनों का विवेक के साथ सदुपयोग करना उचित एवं योग्य कार्य में लगाना, सत्कर्म में लगाना। इन हाथों से आप अपने साथी को या अन्य जीवों को बचा सकते हैं। इन्हीं हाथों से दूसरे का गला भी घोंट सकते हैं, जीवों का संहार भी कर सकते हैं, दूसरे की सम्पत्ति लूट सकते हैं। हाथ मे ही हैं, इनसे सत्कर्म करके पुण्य का उपार्जन कर सकते हैं और दुष्कर्म करके पाप कर्म का बन्ध भी कर सकते हैं। इन आंखों से जीवों का भला करके सन्तों के दर्शन करके, शास्त्रों का स्वाध्याय करके जीवन को उप भी बना सकते हैं और विषय-वासना के पोषण में लगाकर जीवन को पाप की कालिमा से कलुषित भी कर सकते हैं। यदि परिणाम शुभ मन में विवेक जागृत है, तो तन और इन्द्रियों का उपयोग सत्कर्म में ही होगा। यदि कभी तन की या इन्द्रियों की शक्ति मन्द या क्षीण भी हो गई, तब भी वह मन से शुभ भावों के द्वारा पुण्य का संचय कर ही लेता है। आगम में नव प्रकार के पुण्य-बन्ध के कारणों में मन को भी पुण्य का कारण माना है--मन पुणे |
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यदि गहराई से सोचा जाए तो समस्त सत्कर्मों का मूलस्रोत मन ही है और सभी प्रकार के दुष्कर्मों का उद्भव भी मन से ही होता है। कोई भी कर्म कैसा भी क्यों न हो, वह सर्वप्रथम मन में जन्म लेता है, उसके बाद क्रियात्मक रूप लेता है, आचरण में आता है और उस क्रिया से आनेवाले कर्मों का बन्ध भी मन के शुभ या अशुभ परिणामों के अनुरूप होता है। कभी-कभी बाहर में कुछ न करने पर भी व्यक्ति परिणामों से ही शुभाशुभ कर्म का बन्ध कर लेता है । वचन और तन की क्रिया से आस्रव रूप में केवल कर्म पुद्गल आते हैं, पर बन्ध नहीं पड़ता। परन्तु मन में होनेवाले स्पन्दन से कर्म पुद्गल आते भी हैं और परिणामों से उनका बन्ध भी होता है तथा परिणामों की विशुद्धता से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय भी होता है। इसलिए मन तन से अधिक महत्वपूर्ण साधन है -- कर्म-बन्ध और कर्म-क्षय करने का ।
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सागर, नौका और नाविक
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