________________
प्रश्न :-महापुरुषों की पुण्य-भूमि तीर्थक्षेत्रों में प्राय करके अधिक गरीबी देखी जाती है, क्या दान की प्रचलित परम्परा में इस प्रश्न का हल है ?
उत्तर :--गरीबी का प्रश्न केवल तीर्थक्षेत्रों से ही सम्बन्धित नहीं है। गरीबी सारे देश के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है; जो पहले भी थी और आज भी है। कहीं कम तो कहीं ज्यादा, अनुपात में थोड़ा बहुत अन्तर हो सकता है। परन्तु है यह देश की सर्वतः प्रसृत व्यापक समस्या। कुछ समय पूर्व देश की आबादी केवल तीस करोड़ की थी और उसमें से केवल सात प्रतिशत आदमी ही श्रम करता था। उक्त स्थिति पर से स्पष्ट रूपेण प्रमाणित हो जाता है कि गरीबी का यह चक्र कब से चला आ रहा है और उसका मल हेतू क्या है ? जब तिरानवें प्रतिशत काम करनेवाले होंगे और सात प्रतिशत काम न करने वाले, तभी वस्तुतः गरीबी की समस्या का हल निकल सकेगा। उपयोग से अधिक श्रम के द्वारा उपार्जन ही श्री एवं समृद्धि का हेतु है।
गरीबी केवल अभाव है, उसे श्रम से ही दूर किया जा सकता है। मनुष्य की निष्ठामूलक कर्म-चेतना ही उस अभाव को मिटा सकती है। बहुत बार मनुष्य के लिए अभाव चुनौती का काम करता है। यदि मानव उसके समक्ष दृढ़ता से खड़ा होकर कर्मक्षेत्र में जूझने के लिए कटिबद्ध हो जाता है, तो अभाव को समाप्त करने की दिशा में सही समाधान मिल सकता है।
किन्तु, गरीबी अगर मनुष्य के मन में दीनता का रूप ले लेती है, तो जीवन की साहसमूलक कर्म-शक्ति को बर्बाद कर देती है। और, यह दीनता कुछ समय बाद एक ऐसे कुसंस्कार बद्धमूल कर देती है कि फिर यह दीनता राज्य के समस्त कोश से तो क्या, कुबेर के कोश से भी मिट नहीं सकती। अतः याचना से, दान से अथवा अन्य किसी परकीय सहयोग की भीख से दीनता को दूर करने का विचार ही व्यर्थ है।
श्रम की निष्ठा के अभाव में देश की कर्म-चेतना व्यापक रूप से विलुप्त होती जा रही है। आवश्यकताएँ फैलती जा रही हैं। पाने की इच्छा लंका की राक्षसी सुरसा का मुख बनती जा रही है। इसका समाधान श्रम से हो सकता है, पर वह नहीं करना है। चाहिए सब-कुछ, किन्तु उसके लिए करना कुछ नहीं है, ऐसी स्थिति में इधर-उधर मांगने के सिवा और याचना के अतिरिक्त कर्मशून्य लोगों के पास अभीष्ट पाने का अन्य उपाय रहा ही क्या है ? दूसरों से कुछ भी पाना हो तो उनके मन को तैयार करना पड़ेगा, इसके लिए उनके समक्ष रोना पड़ेगा, गिड़गिड़ाना पड़ेगा । स्वयं को बुरी-से-बुरी दीन-हीन स्थिति में प्रदर्शित करना पड़ेगा। और इतने बड़े प्राणहीन श्रम के द्वारा जो यत्किंचित् प्राप्त होगा भी, तो उससे दीनता बढ़ेगी ही, कम नहीं होगी। एक भिखारी द्वार पर खड़ा होकर करुण स्वर में भीख के लिए कितनी बार आवाज देता है, पर उसे मिलता क्या है ? वही जो उपभोग से बचा-खुचा पड़ा है, जिसकी घर में आवश्यकता नहीं रह गयी है। इस तरह दान में प्राप्त वस्तु से भला किसी का क्या निर्माण हो सकता है ? भीख से लोगों की यह गलत धारणा बन गयी है कि बिना श्रम किये भी जीवन मजे से गुजारा जा सकता है। यह मनोवृत्ति राष्ट्रव्यापी बनती जा रही है। लेने की चर्चा सभी जगह है, श्रम से पाने की बात बहुत कम । इससे कर्तव्य की भावना कम हुई है। उल्लसित साहस के उदात्त विचार कम हुए हैं। राष्ट्र की प्रगति के उपयोगी सही सूत्र हाथ से निकल रहे हैं। और इस प्रकार व्यापक रूप से गरीबी के नाम पर दीनता का प्रदर्शन हो रहा है।
इस स्थिति में सुख-साधनों की गरीबी हटने के बाद भी मन का दैन्य दूर हो ही जायेगा, यह निश्चित नहीं है। अतः गरीबी दूर करने से भी बड़ी बात है, दीनता को दूर करना। और, दीनता को दूर करने की शक्ति याचना में नहीं है, व्यक्ति के स्वयं के पौरुष में है, श्रम में है।
तीर्थक्षेत्रों के सम्बन्ध में जो प्रश्न है, वह वस्तुतः गरीबी का उतना नहीं है, जितना की दीनता का है। दीनता को पैदा करने जैसे किसी गलत इरादे से यह दीनता नहीं है, किन्तु गहराई से यथार्थमूलक विचार न करने एवं तत्काल में यों ही किसी काम चलाऊ उथले समाधान खोज लेने के कारण ही तीर्थक्षेत्रों में दीनता एवं गरीबी अधिक दृष्टिगोचर होती है।
दान को मनोवृत्ति
१३५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org