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भारत के चिन्तन की चिर अतीत से एक महत्त्वपूर्ण धारा रही है कि कोई कुछ माँग रहा है, किसी ने सामने हाथ फैलाया है, तो वह खाली हाथ नहीं लौटना चाहिए। कुछ-न-कुछ यथाशक्ति उसे देना ही चाहिए। सैंकड़ों उदाहरण अतीत के इतिहास में ऐसे हैं, कि भारत के दाता ने किसी को निराश नहीं लौटाया है, अपने द्वार से, किसी को यों ही यथागत खाली हाथ नहीं भेजा है। भले ही इसके लिए उन्हें अपना सर्वस्व ही समर्पित क्यों न करना पड़ा हो। दानवीर कर्ण, शिवि, दधीचि तथा हरिश्चन्द्र आदि इसके ज्योतिर्मय उदाहरण हैं। यह बहुत बड़ी उदात्त बात है, देनेवालों के पक्ष में।
दान किसके लिए है ? दान की आवश्यकता क्यों है ? धार्मिकों ने दान को इतना बड़ा महत्त्व क्यों दिया है ? इन सारे प्रश्नों का बहुत तर्कयुक्त सावधानी के साथ विचार एवं निर्णय करना आवश्यक है। एक बात निश्चित है--दान केवल देनेवाले व्यक्ति तक ही सीमित नहीं है। जिसे दिया जा रहा है, उसके सम्बन्ध में भी कुछ सोच लेना आवश्यक है। देय की कब कितनी सीमा रखी जानी चाहिए? लेनेवाला उसका क्या उपयोग करेगा? प्रत्यक्ष बाहर में जो व्यक्ति जैसा दीख रहा है, वस्तुतः वह भीतर से भी वैसा है या नहीं, इस बात का तात्कालिक थर्ममीटर तो हमारे पास नहीं है। फिर भी साम्प्रदायिकता की दृष्टि से तो नहीं, किन्तु वास्तविकता की दृष्टि से कुछ यथासाध्य बातों पर आज के परिवेश में विचार कर लेना आवश्यक है। अन्यथा वर्तमान की प्रचलित दान-परम्परा का कोई कार्यकारी यथार्थ परिणाम निकलना असम्भव नहीं, तो दुःसम्भव अवश्य है।
चार-पाँच साल तक के छोटे-छोटे सैंकड़ो नंगे-अधनंगे अबोध बच्चे दो-पाँच पैसे के लिए जहाँ-तहाँ खड़े हो जाते हैं। हर आने-जानेवाले से हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए माँगते हैं-"ओ बाबूजी, ओ माताजी, देना कुछ। तुम्हारा कल्याण होगा। भूखे हैं, दो दिन से कुछ खाया नहीं है।" बच्चों की करुण आवाज सुनकर कोई भी सहृदय व्यक्ति तरस खा जाता है। कुछ-न-कुछ देने के लिए उसे बाध्य हो जाना पड़ता है। और, यह दान प्रतिफल के रूप में अन्ततः सामाजिक दीनता को ही पैदा करता है, अन्य कुछ नहीं। आज राष्ट्र के समक्ष यह एक विकट समस्या खड़ी है।
वस्तुतः होना यह चाहिए कि यदि कोई असहाय तुम्हारे द्वार पर आकर खड़ा हो गया है, और वह तुमसे याचना करता है, तो उसकी बात प्रेम से सुनो। मालम करो कि उसके परिवार में कोई ऐसा है, जो उसकी सहायता कर सकता है, तो उसे समझाओ कि भीख मांगना ठीक नहीं है। इससे पुरुषार्थ नष्ट होता है, व्यक्ति की अन्तरात्मा का तेज मरता है। अच्छा है, जो भी यथावसर प्राप्त हो, श्रम करो। अपने को कब तक निरुपयोगी बनाये रहोगे? भले आदमी हो जाओ, किसी भी तरह अपने परिवार के लिए उपयोगी बनो। अगर वह नहीं समझता है, तो उसके पड़ोसी से कहो। वह भी इनकार करता है, तो गाँववालों को समझाने का प्रयत्न करो कि अगर यह असहाय इस तरह तुम्हारे गाँव से बाहर जाकर कहीं सहयोग की भीख माँगता है, तो तुम्हारे गाँव की शान खतम होगी। अतः इसके लिए रोटी-रोजी का उचित प्रबन्ध करना तुम्हारा कर्तव्य है।
इससे स्पष्ट है कि सक्षम होते हए भी जिन्हें केवल भीख मांगने की आदत पड़ गयी है, वे अपने हाथों अपने 'महान्' जीवन की हत्या कर रहे हैं। ऐसे लोगों को दिए गए दान को आचार्य हरिभद्र ने पौरुषघ्न दान कहा है। पौरुषघ्न दान का अभिप्राय है- व्यक्ति के भीतर जो पौरुष है, जीवन है, उसको हनन करने वाला दान । भला, यह दान भी कोई दान है ?
मेरी दृष्टि से सर्वसाधारण जनता में या जनता के अमुक वर्गों में मांगने की जो आदत पड़ गई है, वह हमारी उच्च भारतीय-संस्कृति एवं उदात्त सभ्यता का सबसे बड़ा पतन है। इसे रोकना जरूरी है।
अभी-अभी जो राष्ट्र बिलकूल अन्धेरे में थे, पिछड़े हए थे, अशिक्षित थे, वे कितनी तेज गति से देखते-देखते आगे बढ़ रहे हैं, समृद्धि के महल खड़े कर रहे हैं। और, इधर भारत में हजारो-लाखों लोग जो अपने राष्ट्र और समाज के विकास में बहुत कुछ कार्य कर सकते हैं, वे भीख और दान पर जी रहे हैं, फलतः राष्ट्र के विकास में बाधा उपस्थित कर रहे हैं।
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सागर, नौका और नाविक
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