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आबु पर्वत और राणकपुर आदि के भव्य विराट् धर्म मन्दिर, जिन्हें देखकर विदेशी भी मोहमुग्ध हो जाते हैं, जैनों के कला प्रेम के जीवित उदाहरण हैं। स्वर्ण-रजत अक्षरों में लिखित सचित्र अनेक ग्रन्थ हमारी लेखन कला के अविस्मरणीय आदर्श हैं। धर्म-शास्त्र, दर्शन, योग नीति, साहित्य, जीवन, कथा, ज्योतिष, मंत्र, तंत्र, स्तोत्र, आयवेद, भूगोल आदि जिस विषय पर भी जैनाचायों ने लिखा है, कमाल कर दिखाया है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि के व्याकरण, लोक-साहित्य, काव्य, नाटक आदि का जैन-वाङ्मय भी अपने में एक अनूठा चमत्कृत कर देने वाला वाङमय है। लोक जीवन के अन्तरंग और बहिरंग दोनों पक्षों को दूर-दूर तक गहराई से स्पर्श करनेवाली इतनी विराट सांस्कृतिक देन जैन-धर्म की है, फिर भी यह कैसे कहा जाता है कि जैन-धर्म जीवन से भागनेवाला या जीवन से इन्कार करनेवाला धर्म है। कहने को कुछ भी कहा जा सकता है। किसी की जबान नहीं पकड़ी जा सकती। "मुखमस्तीति वक्तव्यं शतहस्ता हरीतिको।" मुख बोलने के लिए खुला है। बोलते रहो, सौ हाथ की लंबी हरड़ होती है। कौन रोकने वाला है। पर, सत्य इस अनर्गल प्रलाप से भिन्न होता है। ऐसा ही सत्य जैनधर्म के पक्ष में भी है, जो मन चाहा बोलने-लिखनेवाले सज्जनों के दुष्प्रचार से अपना भिन्न अस्तित्व रखता है।
आज भी, जब कि जैन समाज एक छोटा-सा समाज रह गया है, उसका कर्मक्षेत्र जनहित की दिशा में व्यापक है। लड़के और लड़कियों के लिए अनेक स्थानों पर विभिन्न स्कूल हैं, कालेज हैं। औद्योगिक शिक्षण केन्द्र हैं। दानसत्र हैं, औषधालय हैं, हास्पिटल हैं। विराट ज्ञान मन्दिर हैं, पुस्तकालय हैं, रिसर्च इंस्टीट्यूट हैं। प्राचीन और आधुनिक साहित्य के प्रकाशन केन्द्र हैं। नैतिक जागरण की पत्र-पत्रिकाएँ हैं, गो-सदन हैं, पांजरापोल हैं, अन्य भी अनेक उदात्त सेवा-संस्थान हैं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी हजारों जैनों ने सत्याग्रही सैनिकों के रूप में जेल यात्राएँ की है, लोमहर्षक यातनाएँ भोगी है। गोलियों की बोछारों में बलिदान भी हए हैं। अनेक जैन तो उच्च कोटि के नेता एवं सेनानी तक रहे हैं।
इतना लम्बा कुछ कहने का मेरा अभिप्राय यह है, कि फिर किस अदष्ट आधार पर जैन-धर्म को जीवनपथ से भागनेवाला धर्म कहा जाता है। वह कौन-सी दैवी आकाशवाणी है, जो यह कहती है कि अमुक उस हेतु से जैन-धर्म प्राप्त जीवन से इन्कार करनेवाला मात्र परलोकवादी धर्म है। वह जीवन में नहीं मरण में पवित्रता का विश्वास रखता है। भगवान महावीर के गणधरों ने तो मुक्त घोषणा की है, कि यह धर्म लोक और परलोक दोनों के लिए हित, सुख, क्षेम और निःश्रेयस के लिए है--"पच्छा-पुरा लोए हियाए, सुहाए, खेमाए, निस्सेसाए..।"
जीवन से भागना, धर्म नहीं
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